Tuesday, July 10, 2012

कविता -15 : ज्ञानेन्द्रपति की कविता "खेसाड़ी दाल की तरह निन्दित"


"खेसाड़ी दाल की तरह निन्दित" , कवि ज्ञानेन्द्रपति की कविता , दरअसल एक असुरक्षित नागरिक और कवि की गुहार है । समकालीन हिन्दी कविता में बहुतेरे बड़बोले कवियों के बीच ज्ञानेन्द्रपति की यह गुहार बहुत देर तक अपने पाठक का पीछा करती है और अन्तत: उसे बेचैन छोड़ देती है । इसे पढ़ते हुए कवि के भीतर और बाहर दोनों को समझा जा सकता है । कवि नीलाभ की एक कविता "चौथा आविष्कार" की कुछ पंक्तियां याद आती हैं इस सन्दर्भ में - "कुछ को मारा जाता था घृणा से / कुछ को प्रेम से / कुछ को अकाल से / कुछ को इफ़रात से / जो बहुत हठी होते उनके लिये / उपेक्षा एक कारगर उपाय था" । ज्ञानेन्द्रपति अपनी इस कविता में बात को और आगे ले जाते हैं । घृणा , प्रेम , अकाल , इफ़रात और उपेक्षा के बाद भी जो बचा रहता है उसका क्या किया जाएगा इस हत्यारे समय में । उत्तर है कि उसे बस मार दिया जाएगा , उखाड़ कर फेंक दिया जाएगा । सत्ता के प्रतिष्ठानों में इसके लिए योजनाएं बन रही हैं । कवि को इन षणयंत्रों का पता है और तभी कविता में वह गुहार लगाता है । इस गुहार को अनसुना नहीं किया जा सकता ।



जैसा कि ऊपर कहा गया है यह एक नागरिक के साथ-साथ एक कवि की भी गुहार है । कवि की चिन्ता यह भी है कि उसे भारतीय कविता के क्षेत्र से उखाड़ कर फेंक दिया जाएगा । यहां कविता के "रामदास" को पता है कि आज उसकी हत्या होगी । उसे यह भी मालूम है कि हत्यारे कौन हैं और यह भी कि हत्या की वजह क्या है । इस अर्थ में यह बेहद खुली हुई कविता है । पाठक को इसे आत्मस्थ करने के लिए कोई कुंजी नहीं ढूंढ़नी होगी । कविता के सरोकार बड़े हैं । कवि की परेशानी है कि कृत्रिम के वर्चस्व के आगे प्राकृतिक चीज़ों को परिदृश्य से हटा देने की कवायदें शुरु हो चुकी हैं । लुभावनी चीज़ें लोगों के दिलो-दिमाग से होते हुए उनके घरों में भरी जा रही हैं । परेशानी का कारण यह है कि इस कवायद से बाज़ार को सीधा फ़ायदा होता है और घर को सीधा नुकसान । घर और बाज़ार के बीच का पुल टूट रहा है । घर और बाज़ार के इस द्वंद्व में गुणीजन बाज़ार के पक्ष में खड़े हैं । कृत्रिम का गुणगान है , अनुशंसा और प्रशंसा है । यह हमारे समय की सबसे बड़ी साजिश है ।



अखबारों को इसकी खबर तक नहीं है । सत्ता जो इस खेल को अंजाम दे रही है वह  "इतिहास की गति" के भरोसे नहीं बैठी है , उसके पास "इतिहास की मति" को बदल देने की कारगर तरकीबें हैं । वह रंग बदलना जानती है । इसलिए उसपर आसानी से सन्देह भी नहीं किया जाता । मारक और घातक योजनाएं भी हितकारी और कल्याणकारी प्रतीत होने लगती हैं । खेसाड़ी दाल गरीब का खाद्य है । अब उसकी जगह जेनेटिकली मॉडिफ़ायड टमाटर उगाये जायेंगे । खेसाड़ी दाल का प्रतीक कविता में देश के साधारण नागरिक की तरह आता है । वह भारतीय कविता के परिप्रेक्ष्य में उस जेनुइन कवि का प्रतीक भी है जिसे हर हाल में अप्रासंगिक बनाने के लिए कलावंत गुणवंत प्रभु वर्ग सक्रिय है और जिसका मारा जाना तय हो चुका है । कविता का काम भी इसी प्रभु वर्ग को लुभाना , उसके रसबोध को सन्तुष्ट करने तक रह जाएगा । कविता से उनकी जेबें भरेंगीं । कहने की आवश्यकता नहीं कि जिन कवियों या कविताओं की अनुशंसा , प्रशंसा और गुणगान से हिन्दी के सांस्कृतिक सत्ता-केन्द्रों और प्रकाशक प्रभुओं की जेबें भरती रही हैं प्रकारान्तर से यह कविता उनके गिरेबान भी पकड़ती है । कवि सूचना देता है कि "मानव-संसाधन-मन्त्रालय के अन्तर्गत / संस्कृति विभाग में / गुपचुप खुला है एक प्रकोष्ठ" और कविता में यह पूर्वानुमान बेहद मुखरित (लाउड) है कि "यह है निश्चित / कि देसी और दुब्बर खेसाड़ी दाल की तरह निन्दित / उखाड़कर फेंक दिया जाऊँगा / भारतीय कविता के क्षेत्र से" । क्या हिन्दी के किसी पाठक की दिलचस्पी इस बात में नहीं होनी चाहिए कि इस प्रकोष्ठ में कौन लोग काम कर रहे हैं ।



दो -एक बातें खेसाड़ी (खेसारी) के बारे में । बताने की ज़रूरत नहीं कि यह एक प्रकार का दलहन है जिसकी खेती के लिए फ़सल कटने के बाद खाली पड़े खेतों में कुछ मुट्ठी खेसाड़ी छींट भर देनी होती है । सिंचाई की ज़रूरत न्यूनतम , न भी हो तो खेतों में बची नमी से यह खुद को हरा रखता है । देख-रेख का वैसा झंझट नहीं । बहुत कम समय में घर के लिए दाल और कभी-कभार साग का इन्तज़ाम । इसकी महिमा गरीब किसान के लिए बहुत है । लेकिन एक दौर ऐसा भी आया जब यह प्रचारित किया गया कि खेसाड़ी खाने की वजह से गम्भीर बीमारियां बढ़ रही हैं । फिर खेसाड़ी की निन्दा और घोरतर उपेक्षा । अब खेसाड़ी की प्रकृति की कविताओं की बात करें । कौन नहीं जानता कि कवि होना और कवि बनना दो अलग-अलग मुआमले हैं । तो बने और बनाए गये कवियों और उनके आकाओं के द्वारा संगठित रूप से स्वाभाविक और प्रकृत कवियों , लोक और जनपद को आवाज़ देने वाले कवियों की घोर उपेक्षा को इस तरह भी समझा जा सकता है । कविता की प्रकृति में जंगली घास की तरह उगे कवियों से सबसे ज़्यादा डर गमलों में उगे कविता के फूलदार पौधों को रहता है और इन्हें उगाने और संरक्षित करने वाले मालियों और फूलों के कारोबारी प्रभुओं को तो खैर और भी ज़्यादा डर सताता होगा (गुलशन का कारोबार !) । ज्ञानेन्द्रपति के बहुचर्चित काव्य-संग्रह "संशयात्मा" में संकलित यह कविता देश और समाज के आखिरी पायदान पर खड़े आदमी और साहित्य के आखिरी पायदान पर खड़े कवि तक पहुंचने के लिए दरवाज़े खोलती है ।



खेसाड़ी दाल की तरह निन्दित  
(ज्ञानेन्द्रपति)
 

खेसाड़ी
दाल की तरह निन्दित
उखाड़कर फेंक दिया जाऊँगा
भारतीय कविता के क्षेत्र से
उस जगह लाल गाल वाले टमटार बोये जायेंगे
टमाटर ही टमाटर
जैव प्रयोगशालाओं में परिवर्तित अन्त:रचनावाले
स्वस्थ-सुन्दर-दीर्घायु
गुदाज़ होगी उनकी देह
अनिन्द्य होगा उनका रस
बोतलों में सरलता से बन्द होकर
शुष्कहृदयों को रसिक बनायेंगे
रसिकों को ललचायेंगे
और रसज्ञों को भायेंगे
वे टमाटर
इनके खेत और उनके घर भरेंगे
उनके गुण गाते थकेंगे गुणीजन
उनकी अनुशंसा होगी , प्रशंसा होगी
वे योगानुकूल माने जायेंगे निर्विवाद
मानव-संसाधन-मन्त्रालय के अन्तर्गत
संस्कृति विभाग में
गुपचुप खुला है एक प्रकोष्ठ
कृषि-मन्त्रालय के खाद्य प्रसंस्करण प्रभाग के साझे में
क्योंकि अब लक्ष्य है निर्यात और अभीष्ट है विदेशी पूँजी-निवेश
और यह है निश्चित
कि देसी और दुब्बर खेसाड़ी दाल की तरह निन्दित
उखाड़कर फेंक दिया जाऊँगा
भारतीय कविता के क्षेत्र से
क्योंकि अब
इतिहास की गति के भरोसे बैठ
इतिहास की मति बदलने की तकनीक है उनकी मुट्ठी में
खो जाऊँगा
जिस तरह खो गयी है
बटलोई में दाल चुरने की सुगन्ध
अधिकतर घरों में
और अखबारों को खबर नहीं
अख़बारों के पृष्ट पर
विज्ञापनों से बची जगह में
वर्ल्ड बैंक के आधिकारिक प्रवक्ता का बयान होगा
खुशी और धमकी के ताने-बानेवाला बयान
जिसका मसौदा
किसी अर्थशास्त्री ने नहीं
किसी भाषाशास्त्री ने नहीं
बल्कि सामरिक जासूसों की स्पेशल टीम ने
टास्क फोर्स ने
तैयार किया होगा
ढँकने-तोपने-कैमाओफ्लेज-में माहिर
पेन्टागन और सी. आई.. के चुनिन्दा युद्धकला-विशारद अफ़सरों के
एक संयुक्त गुप्त दल ने  







1 comment:

  1. Yahi to gyanedra pati ji ki taqat ha. Khesari dal ke peechhe prirodh ka jo swar ha wah kitna under tön.kitna bedhak ha. Dekhne layak ha. Ye kawita ak udaharad ha ki bina had bong machaye marm per kaise mar ki ja sakti ha.kawita ki sharton ko khoob soorti se nibahte huye.

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