"धूल में मिला
देना" हिन्दी में एक मुहावरा है । यह धूल नश्वरता का रूप है तो सृजन का भी है
। धूल दिखती नहीं तब भी वह होती है । वह हवा में तैरती है और चीज़ों पर अपनी छाप छोड़ती
है । कवि अग्निशेखर जब धूल को देखते हैं तो वह मामूली सी धूल “समय” में बदल जाती है । इस धूल का वितान बहुत बड़ा हो
जाता है । "धूल" कविता में अग्निशेखर एक दार्शनिक की तरह धूल से साक्षात्कार
करते हैं ।
"यह कैसे समय में रह रहे हैं हम / कि धूल सने काँच पर / हमारे संवेदनशील स्पर्श / हमारी उधेड़बुन / हमारे रेखांकन / हमारी बदतमीजियों के अक्स / कहे जाते हैं" ।
धूल जैसी साधारण दिखने वाली चीज़ कवि के यहां इतनी शातिर
है कि ज़िन्दगी के कोनों-अंतरों तक पीछा करती है । वह "सपनों में खिल आए गुलाब"
पर भी गिरती है । उसकी पहुंच की ज़द में वह "अलमारी" भी है जिसे हम
"सबके सामने नहीं खोलते" । अग्निशेखर के यहां धूल इतनी ज़िद्दी है कि वह
"इन शब्दों में" कविता लिख रहे कवि की ओर "कहीं पास से" देख रही
है और कवि के "कहीं चले जाने पर" इरादतन लिखने की मेज़ पर "उतर आएगी"
। कविता में धूल एक रहस्य से भरे बिम्ब के रूप में प्रकट होती है ।
कविता में ज़िन्दगी
एक "धुली हुई सुबह" की तरह खुलती है हमारे बीच । कहना न होगा कि इस ज़िन्दगी
में प्रकृति की आदिम पवित्रता की महक है । यह ज़िन्दगी हमारे बीच ऐसे खुलती है
"जैसे कि एक पत्र हो" जो अभी-अभी एक बन्द लिफ़ाफ़े से निकला है और जिसे अभी
पढ़ा जाना है । जैसे ही हम किसी "बे-पढ़े वाक्य" को छूना चाहते हैं, वह धूल "हमारी अंगुली से चिपक जाती है" । यह बात कवि को हैरत में
डालती है कि यह धूल आख़िर आती कहां से है :
"जब हमें दिखाई नहीं देती / पता नहीं कहाँ रहती है उस समय" ।
कवि धूल के इस
तिलिस्म को तोड़ना चाहता है । कविता में ही एक जगह वह कहता है : "यों देखा जाए तो / जिसे हम काली रात कहते हैं / वह सूरज की आँख में / धूल का झोंका है" । कहने की
आवश्यकता नहीं कि "आंखों में धूल झोंकना" भी हिन्दी में एक मुहावरा है ।
इस तिलिस्मी समय में जो सर्वशक्तिमान है वह हमारी आंखों में धूल झोंकने वाला है, वह हमें धूल
में मिला देने के लिए निरन्तर साजिशें करता है । उसकी ख़तरनाक पहुंच से हमारे जीवन का
अन्तरंग भी अब नहीं बचा । ऐसे समय में अग्निशेखर की यह कविता उम्मीद(सूरज) के चेहरे
से धूल पोंछने का काम करती है ।
धूल
/ अग्निशेखर
जब हमें दिखाई नहीं देती
पता नहीं कहाँ रहती है उस समय
और जब हम एक धुली हुई सुबह को
जो खुलती है हमारे बीच
जैसेकि एक पत्र हो
उसके किसी बे-पढ़े वाक्य को छूने पर
हमारी उँगली से चिपक जाती है
यह कैसे समय में रह रहे हैं हम
कि धूल सने काँच पर
हमारे संवेदनशील स्पर्श
हमारी उधेड़बुन
हमारे रेखांकन
हमारी बदतमीजियों के अक्स
कहे जाते हैं
यह समय क्या धूल ही है
जिससे कितना भी बचा जाए
पड़ी हुई मिलती है
उस अलमारी में भी
जिसे हम सबके सामने नहीं खोलते
मैंने सपने में खिल आये गुलाब पर भी
इसे देखा है
यों देखा जाए तो
जिसे हम काली रात कहते हैं
वह सूरज की आँख में
धूल का झोंका है
इन शब्दों में
जबकि मै लिख रहा हूँ कविता
वह झाँक रही होगी कहीं पास से
और मेरे कहीं चले जाने पर
उतर आएगी मेज़ पर.
पता नहीं कहाँ रहती है उस समय
और जब हम एक धुली हुई सुबह को
जो खुलती है हमारे बीच
जैसेकि एक पत्र हो
उसके किसी बे-पढ़े वाक्य को छूने पर
हमारी उँगली से चिपक जाती है
यह कैसे समय में रह रहे हैं हम
कि धूल सने काँच पर
हमारे संवेदनशील स्पर्श
हमारी उधेड़बुन
हमारे रेखांकन
हमारी बदतमीजियों के अक्स
कहे जाते हैं
यह समय क्या धूल ही है
जिससे कितना भी बचा जाए
पड़ी हुई मिलती है
उस अलमारी में भी
जिसे हम सबके सामने नहीं खोलते
मैंने सपने में खिल आये गुलाब पर भी
इसे देखा है
यों देखा जाए तो
जिसे हम काली रात कहते हैं
वह सूरज की आँख में
धूल का झोंका है
इन शब्दों में
जबकि मै लिख रहा हूँ कविता
वह झाँक रही होगी कहीं पास से
और मेरे कहीं चले जाने पर
उतर आएगी मेज़ पर.
नील जी, अग्निशेखर जी की कविता और आपकी टिप्पणी दोनों अच्छी है। इस प्रस्तुति के लिए बधाई।
ReplyDeletebahut badhia
ReplyDeletebehtreen kavita.
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता और उतनी ही अच्छी टिप्पडी
ReplyDeleteनीलकमल जी,आपने मेरी कविता 'धूल ' पर इतनी सार्थक बात की है कि मैं अभिभूत हूँ।इतने सहज भाव से और सरल शब्दों में बिना किसी चालू आलोचकीय बुद्धिजीविता का आतंक फैलाए आपने महत्वपूर्ण समीक्षा संभव की है। यह सब के बूते की बात नहीं। मैं आपका और आपकी टिपण्णी की सराहना करने वाले सभी मित्रों का आभारी हूँ।
ReplyDeleteNeelkamal jee umda tipanni aur kavita bhee. Agnishekhar jee badhai. Abhaar.
ReplyDeletevery nice lines
ReplyDeletebest reagrds
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