ख़ालिस संवेदनाओं के कवि आत्मारंजन की कविताओं में अपने समयकाल की निष्कपट छवियां हैं । "पगडंडियां गवाह हैं", आत्मारंजन का हाल ही में प्रकाशित पहला कविता-संग्रह है । संग्रह की कविताएं अपने सरोकारों के चलते किसी भी सहृदय पाठक के मन-मस्तिष्क पर अपना प्रभाव बनाने में सक्षम हैं । सचमुच, यह ठहर कर सोचने का समय है कि आज कविता के सरोकार क्या हैं और इन कविताओं के साथ क्या हैं हमारे सरोकार । बड़ी मासूमियत के साथ कवि कहता है - सुख का क्या है, वह तो मिल जाता है एक छोटे से स्पर्श में भी । यह स्पर्श है मिट्टी का स्पर्श ! कवि सचेत करता है कि मिट्टी में मिलाना और धूल चटाना जैसी उक्तियां विजेताओं के दम्भ से निकली हैं । असल में तो धूल चाटने वाला ही जान पाता है मिट्टी की महक को और धरती के स्वाद को । इतना ही नहीं, कवि की चिन्ता यह भी है कि धरती और मिट्टी के सन्दर्भ में जीतना और जोतना पर्यायवाची हैं और यहां जीतने की शर्त रौंदना नहीं बल्कि रोपना है ।
संग्रह की कविताओं में "पृथ्वी पर लेटना" कविता खास तौर पर समकालीन सन्दर्भों में उल्लेखनीय है । इसके स्पष्ट कारण हैं । सबसे पहले तो यह कविता श्रम और उससे उपजी थकान को सम्पूर्ण अर्थवत्ता के साथ न सिर्फ़ उकेरती है बल्कि उसके सौन्दर्य को भी रेखांकित करती है । आत्मारंजन इसी कविता में एक बहुत मारक बात कह जाते हैं: "कि तमाम ख़ालिस चीज़ों के बीच / सुविधा एक बाधा है" । यह एक छोटी सी काव्य-पंक्ति अपनी अनुगूंजों के लिए अर्थवान है ।
बात कविता की करें तो उसमें थक कर चूर होती हुई एक मानुष-देह का विश्राम है । विश्राम, आज की सभ्यता का नाभिकीय शब्द । यहां श्रम कोई और कर रहा है और विश्राम कोई और ले रहा है । लेकिन श्रम के बिना विश्राम ऐय्याशी में बदल जाता है, वह विलास बन जाता है । भूख के बिना रोटी का स्वाद और प्यास के बिना पानी की तरावट को समझना एक बौद्धिक व्यायाम भर है । उसी तरह श्रम के बिना आराम या विश्राम को समझना एक मानसिक कवायद भर है । आत्मारंजन के सरोकार भी यही हैं । सुविधा एक बाधा है क्योंकि वह व्यक्ति को समझौतों की संकरी गली तक खींच कर ले जाती है । जो भारी थकान से शिथिल होकर धरती पर पीठ के बल लेटा है वह कविता की भाषा में "पृथ्वी से सीधा संवाद कर रहा" है ।
कहना न होगा कि यह कविता एक ऐसे समय और समाज की खोज की यात्रा पर निकलती है जहां प्रकृति और मनुष्य का सह-अस्तित्व अपनी उन्मुक्तता में सम्भव बनता है ।
पृथ्वी पर लेटना (कविता):
पृथ्वी पर लेटना
पृथ्वी को भेंटना भी है
ठीक वैसे जैसे
थकी हुई हो देह
पीड़ा से पस्त हो रीढ़ की हड्डी
सुस्ताने की राहत में
गैंती-बेलचे के आसपास ही कहीं
उन्हीं की तरह
निढाल हो लेट जाना
धरती पर पीठ के बल
पूरी मौज में डूबना हो
तो पृथ्वी का ही कोई हिस्सा
बना लेना तकिया
जैसे पत्थर
मुंदी आंखों पर और माथे पर
तीखी धूप के खिलाफ़
धर लेना बांहें
समेट लेना सारी चेतना
सिकुड़ी टांग के खड़े त्रिभुज पर
ठाठ से टिकी दूसरी टांग
आदिम अनाम लय में हिलता
धूल धूसरित पैर
नहीं समझ सकता कोई योगाचार्य
राहत सुकून के इस आसन को
मत छेड़ो उसे ऐसे में
धरती के लाड़ले बेटे का
मां से सीधा संवाद है यह
मां पृथ्वी दुलरा-बतिया रही है
सेंकती सहलाती उसकी
पिराती पीठ
बिछावन दुभाषिया है यहां
मत बात करो
आलीशान गद्दों वाली चारपाई की
देह और धरती के बीच
अड़ी रहती है वह दूरियां ताने
वंचित होता/चूक जाता
स्नेहिल स्पर्श
ख़ालिस दुलार
कि तमाम ख़ालिस चीज़ों के बीच
सुविधा एक बाधा है
पृथ्वी पर लेटना
पृथ्वी को भेंटना भी है
खास कर इस तरह
ज़िन्दा देह के साथ
ज़िन्दा पृथ्वी पर लेटना ।
संग्रह की कविताओं में "पृथ्वी पर लेटना" कविता खास तौर पर समकालीन सन्दर्भों में उल्लेखनीय है । इसके स्पष्ट कारण हैं । सबसे पहले तो यह कविता श्रम और उससे उपजी थकान को सम्पूर्ण अर्थवत्ता के साथ न सिर्फ़ उकेरती है बल्कि उसके सौन्दर्य को भी रेखांकित करती है । आत्मारंजन इसी कविता में एक बहुत मारक बात कह जाते हैं: "कि तमाम ख़ालिस चीज़ों के बीच / सुविधा एक बाधा है" । यह एक छोटी सी काव्य-पंक्ति अपनी अनुगूंजों के लिए अर्थवान है ।
बात कविता की करें तो उसमें थक कर चूर होती हुई एक मानुष-देह का विश्राम है । विश्राम, आज की सभ्यता का नाभिकीय शब्द । यहां श्रम कोई और कर रहा है और विश्राम कोई और ले रहा है । लेकिन श्रम के बिना विश्राम ऐय्याशी में बदल जाता है, वह विलास बन जाता है । भूख के बिना रोटी का स्वाद और प्यास के बिना पानी की तरावट को समझना एक बौद्धिक व्यायाम भर है । उसी तरह श्रम के बिना आराम या विश्राम को समझना एक मानसिक कवायद भर है । आत्मारंजन के सरोकार भी यही हैं । सुविधा एक बाधा है क्योंकि वह व्यक्ति को समझौतों की संकरी गली तक खींच कर ले जाती है । जो भारी थकान से शिथिल होकर धरती पर पीठ के बल लेटा है वह कविता की भाषा में "पृथ्वी से सीधा संवाद कर रहा" है ।
कहना न होगा कि यह कविता एक ऐसे समय और समाज की खोज की यात्रा पर निकलती है जहां प्रकृति और मनुष्य का सह-अस्तित्व अपनी उन्मुक्तता में सम्भव बनता है ।
पृथ्वी पर लेटना (कविता):
पृथ्वी पर लेटना
पृथ्वी को भेंटना भी है
ठीक वैसे जैसे
थकी हुई हो देह
पीड़ा से पस्त हो रीढ़ की हड्डी
सुस्ताने की राहत में
गैंती-बेलचे के आसपास ही कहीं
उन्हीं की तरह
निढाल हो लेट जाना
धरती पर पीठ के बल
पूरी मौज में डूबना हो
तो पृथ्वी का ही कोई हिस्सा
बना लेना तकिया
जैसे पत्थर
मुंदी आंखों पर और माथे पर
तीखी धूप के खिलाफ़
धर लेना बांहें
समेट लेना सारी चेतना
सिकुड़ी टांग के खड़े त्रिभुज पर
ठाठ से टिकी दूसरी टांग
आदिम अनाम लय में हिलता
धूल धूसरित पैर
नहीं समझ सकता कोई योगाचार्य
राहत सुकून के इस आसन को
मत छेड़ो उसे ऐसे में
धरती के लाड़ले बेटे का
मां से सीधा संवाद है यह
मां पृथ्वी दुलरा-बतिया रही है
सेंकती सहलाती उसकी
पिराती पीठ
बिछावन दुभाषिया है यहां
मत बात करो
आलीशान गद्दों वाली चारपाई की
देह और धरती के बीच
अड़ी रहती है वह दूरियां ताने
वंचित होता/चूक जाता
स्नेहिल स्पर्श
ख़ालिस दुलार
कि तमाम ख़ालिस चीज़ों के बीच
सुविधा एक बाधा है
पृथ्वी पर लेटना
पृथ्वी को भेंटना भी है
खास कर इस तरह
ज़िन्दा देह के साथ
ज़िन्दा पृथ्वी पर लेटना ।
अपनी माटी की गंध कविता में लाना और वह भी एक नव -सान्स्कृतिक विकल्प के साथ , यह आत्मा रंजन जी के काव्य-शिल्प और जीवन-दृष्टि की विशेषता है । श्रम केवल श्रम ही नहीं होता , उसकी आत्मा में एक पूरी संस्कृति बसी होती है ।
ReplyDeleteA beautiful poem Atma Sir ~
ReplyDeleteनीलकमल जी की व्याख्या इस कविता को और भी धारदार बनाती है. पृथ्वी पर लेटना/ पृथ्वी को भेंटना भी है..
ReplyDeleteबढ़िया..
बार-बार पढ़ी जाने वाली कविता..
क्या बात है ..........पिराती पीठ का .......बिछावन जहाँ दुभाषिया है ........अच्छी कविता ..गैंती - बेलचा के आसपास ....वाह अच्छा प्रयोग .......
ReplyDeleteअस्ल में आराम का हकदार केवल श्रमसाध्य काम करने वाले का है और आपने सही कहा उस आराम को वह व्यक्ति धरती के बिस्तर पर और इसी के किसी भी हिस्से का तकिया बना कर पा लेता है जैसे मां का स्नेहिल स्पर्श पा लिया हो..बहुत खूब.
ReplyDeleteVaah!! Ise kahte hain sacchi kavita. Bahut bahut dhanyavaad. - Kamal Jeet Choudhary ( J&K)
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