1.
कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर
कहते हैं , “मोर नाम एई बोले ख्यात
होक , आमि तोमादेर-ई लोक” | वे अपनी
पहचान ही इस रूप में चाहते हैं कि लोग उन्हें अपना आदमी ही जानें |
आमतौर पर लोक की बात आते ही
स्वर्गलोक और मर्त्यलोक (स्वर्ग और नर्क) , इहलोक और परलोक ,
देवलोक और नागलोक जैसी पुरातन अवधारणाएँ अवचेतन से बाहर आने लगती हैं | यहाँ लोक का प्रचलित अर्थ संसार है | साहित्य , ख़ास तौर पर कविता में लोक की बात करते हुए इन रूढ़ विचारों से बहुत मदद
नहीं ली जा सकती | लेकिन इन विचारों को एकदम से दरकिनार भी
नहीं किया जा सकता | ये भी उसी लोक के विचार हैं जो साहित्य
में और कविता में हमारी चिंता के केंद्र में है, अर्थात समाज
के निचले पायदान पर खड़ा साधारण आदमी | वह साधारण आदमी समाज
के शासक वर्ग अथवा प्रभु वर्ग का विलोम रचता है | यहाँ किसी
प्रचलित शब्दावली के अनावश्यक प्रयोग से बचना चाहिए क्योंकि ऐसी कोई भी शब्दावली
लोक को उसके अर्थों में सीमित कर देने जैसी बात होगी | उदाहरण
के लिए यदि हम उसे सर्वहारा कहते हैं तो उससे ऐसे लोगों को अलग करना होगा जिनके
पास थोड़ा सा भी संबल जीने के लिए बचा हुआ है , अर्थात जिसने
अपना सर्वस्व नहीं गंवाया है लेकिन फिर भी शोषित है | कविता
का लोक तब कौन है यह बात शुरू में ही साफ हो जानी चाहिए | साहित्य
और कविता के इलाक़े में गरीबी रेखा जैसी कोई चीज़ नहीं हुआ करती | यहाँ कसौटी यह है कि वह व्यक्ति पीड़ित है अथवा पीड़क , दुखी है कि दुख देने वाला है | यदि वह पीड़क है, दुख देने वाला है तो हमारे लिए शासक अथवा प्रभु वर्ग का प्रतिनिधि है | उससे मुक्ति ही लोक संघर्ष का सबसे बड़ा आधार है | रवीन्द्र
नाथ ठाकुर की बात पर लौटें तो कविता में हम बार-बार जिस लोक की बात करते हैं वह
प्रथमत: और अंतत: हमारा “अपना आदमी” ही होता है | लोक
बृहत्तर अर्थ में हमारा अपना आदमी ही है | कविता के आलोचक की
ज़िम्मेदारी यह भी बनती है कि वह इस “अपने आदमी” का अनुसंधान करे और उसके पक्ष को
सामने लाए | लोक कोई इकहरी अवधारणा नहीं है | उसकी संरचना बहुपर्तदार है, संश्लिष्ट है |
जरा हिन्दी के लोकगीतों को
याद करें | कैसा है उसका सत्ता
विमर्श अथवा पावर डिसकोर्स ? यह अद्भुत बात है कि लोक पर जिस राजा का शासन है उस लोक के दमित
स्वप्नों में एक बड़ा स्वप्न उसी तरह का राजा बनना भी है | ऐसे
तमाम लोकगीत मिल जाएंगे जिनमें माता-पिता अपने बेटे-बेटियों को राजकुमार-
राजकुमारी के रूप में देखना चाहते हैं | लड़कियों के सपनों
में राजकुमार ही आता है, कोई मजदूर नहीं | लड़के अपने लिए राजकुमारियों का ख़्वाब बुनते हैं |
एक गरीब आदमी भी जब अपने लिए वैभव की कल्पना करता है तो उस कल्पना में वह राजा ही
होता है जहां उसके नौकर-चाकर होते हैं , जहां उसे श्रम नहीं
करना होता है | ऐसे में वर्ग शत्रु की अवधारणा के बारे में
पुनर्विचार करना कम जरूरी नहीं | ये पंक्तियाँ लिखते हुए
मुझे इस बात का अहसास है कि विद्वानों की भृकुटियाँ इसे पढ़ते हुए तन रही होंगी | लेकिन यह एक सच है | इसे स्वीकार करना होगा | यह अलग शोध का विषय हो सकता है | लोक का अवस्थान , उसकी सीमाएं और सामर्थ्य , उसके संघर्ष , उसके जय-पराजय , दुख-सुख ,
कुल मिला कर उसका एक लेखा-जोखा कैसा है | क्या लोक कोई
प्रश्नातीत , पवित्र और दैवीय विचार है ? नहीं | पूरी सहानुभूति रखते हुए भी लोक को उसके
अंतर्विरोधों के साथ ही समझना होगा |
2.
“किन्तु वह फटे हुए वस्त्र
क्यों पहने है
उसका स्वर्ण वर्ण मुख मैला
क्यों है
वक्ष पर इतना बड़ा घाव कैसे हो
गया
उसने कारावास दुख क्यों झेला
है
उसकी इतनी भयानक स्थिति क्यों
है
रोटी उसे कौन पहुंचाता है
कौन पानी देता है
फिर भी उसके मुख पर स्मित
क्यों है
प्रचंड शक्तिमान क्यों दिखाई
देता है” [“अँधेरे में” - मुक्तिबोध]
मुक्तिबोध अपनी लंबी कविता
में ये सवाल पूछते हैं | कविता का
“वह” कौन है ? क्या यह लोक की सामूहिक चेतना नहीं है , उसकी आत्मा – कवि की परम अभिव्यक्ति ? इस परम
अभिव्यक्ति का साक्षात्कार कवि की उपलब्धि है | “अँधेरे में”
कविता इसी साक्षात्कार का दस्तावेज है |
ध्यान रहे कि कविता जहां से
शुरू होती है वह जगह जिंदगी का एक अँधेरा कमरा है | कैसी है यह अंध कारा ? क्या घटित हो रहा है इस अंध कारा के भीतर ? दृश्यावलियों की एक अविरल कड़ी है यह लंबी कविता जिसमें अपने समय और समाज
का चेहरा दिखाई देता है | इस लंबी कविता के कई टुकड़ों को
स्वतंत्र कविता के रूप में पढ़ा जाना चाहिए, जैसा कि कई बार
देखने में भी आता है | यह कविता एक लंबी फीचर फिल्म की तरह
है |
“वह कौन, सुनाई जो देता, पर
नहीं देता दिखाई” | इस अज्ञात की खोज में कवि भटकता है | दुनिया एक तिलिस्मी खोह में बदल जाती है | इस खोह
में गहन अँधेरा है | इस अँधेरे में जैसे कहीं रोशनी पड़ती है
और कुछ दृश्य परदे पर उभरते हैं | कवि इन दृश्यों के पीछे
पीछे भागता है | दृश्य में सक्रिय एक जानी पहचानी दुनिया है | उस जानी पहचानी दुनिया में किसी चश्मदीद गवाह का होना बेहद खतरनाक है | लिहाजा कवि, जिसने इन दृश्यों को न सिर्फ देखा है
बल्कि उसमें चमकते चेहरों को पहचान भी लिया है , अब उनके लिए
बेहद खतरनाक है | वे इस गवाह की हत्या कर देना चाहते हैं | इस पूरी कविता में एक तिलिस्मी दुनिया दिखाई देती है | सबसे पहले जो बिम्ब कविता में उभरता है वह दीवार की पपड़ियों के खिसकने से
बना एक चेहरा है – नुकीली नाक , भव्य ललाट , दृढ़ हनु | दूसरा बिम्ब शहर के बाहर तालाब के काले
जल के शीशे में उभरता है – बड़ा चेहरा , फैलता और मुसकाता | तीसरा बिम्ब , जंगल के पेड़ों के ऊपर चमकती बिजली और
उसमें उभरता एक तिलिस्मी खोह का दरवाजा – लाल मशालों की रोशनी में रक्तालोक स्नात
पुरुष , गौर वर्ण , दीप्त दृग , सौम्य मुख , भव्य आजानुबाहु |
यह रहस्यमय व्यक्ति कौन है ? कवि का उत्तर है कि वह उसकी अब
तक न पाई गई अभिव्यक्ति की पूर्ण अवस्था है | अर्थात जो है
और जो चाहिए उसके बीच के तनाव में आविर्भूत आत्म चेतना |
पुन: उन प्रश्नों पर लौटें - किन्तु वह फटे हुए वस्त्र क्यों पहने है , आदि आदि , तो प्रश्नकर्ता को सजा मिलती है | जंगल से आती हवा उन मशालों को ही बुझा देती है | वह
पुन: अँधेरे में , आहत और अचेत पड़ा मिलता है | यह उसकी सजा है |
कल्पना की जा सकती है कि वह कैसा
समाज होगा जहां सवाल करने की ऐसी सजा मुकर्रर है | कोई बाहर से सांकल बजाता है | लेकिन अंधेरे खोह में
वह क्षत विक्षत पड़ा है , इस कदर कि उठ भी नहीं सकता | यहाँ मुक्तिबोध एक विलक्षण बात कह जाते हैं | वे
कहते हैं कि शक्ति ही नहीं यह तो ठीक है परंतु
“यह भी है तो सही है कि / कमजोरियों से ही मोह है मुझको” | इसलिए वह कतराता है , डरता है , टालता है उस सांकल बजाने वाले को , जिसे देख प्यार
भी उमड़ता है और जो हृदय को बिजली के झटके देता है | लेकिन वह
भी इतना ढीठ कि कवि को उठा कर तुंग शिखर के खतरनाक खुरदुरे कगार पर बैठा देता है और
कहता है , “पार करो पर्वत–संधि के गह्वर / रस्सी के पुल पर
चलकर / दूर उस शिखर कगार पर खुद ही पहुँचो” | गहरे द्वंद्व
के बाद बड़ी मुश्किल से जब अशक्त व्यक्ति जंग खाई चिटखनी खोलता है तब तक वह परम
अभिव्यक्ति जा चुकी होती है | यह “टू बी ऑर नॉट टू बी” का
द्वंद्व है | कविता का निहितार्थ क्या हो सकता है यहाँ | मैं इस कविता के संदर्भ में यह अर्थ ग्रहण करने की छूट लेना चाहूँगा कि
समाज के भीतर लोक की दमित चेतना की पूर्ण अभिव्यक्ति तभी संभव है जब वह खुद इसके
निमित्त सचेष्ट हो | उसे अपनी आत्मशक्ति को पहचानना होगा | परम अभिव्यक्ति बार बार दरवाजे पर दस्तक नहीं देती | उसके पीछे चलने के खतरे हैं जिन्हें उठाए बिना उस तक पहुँचना संभव नहीं
है | इस अर्थ में “अंधेरे में” कविता व्यक्ति अथवा लोक के
आत्मसंघर्ष की महागाथा है |
एक मनोवैज्ञानिक , चिकित्सक की दृष्टि से देखें तो कई बार
कविता का प्रथम पुरुष “डिमेन्शिया” का मरीज प्रतीत होता है |
यह आधा स्वप्न आधा जागृति की अवस्था है जहां घटनाएँ फिल्म की रील की तरह उभरती और
बुझती हैं | “पीटे गए बालक सा मार खाया चेहरा / उदास इकहरा /
स्लेट पट्टी पर खींची गई तसवीर / भूत जैसी आकृति” देखते हुए अपने सिविल लाइंस के
कमरे में पड़ा कवि प्रश्नाकुल है कि कहीं
यह उसी का चेहरा तो नहीं | आसमान में सितारों के बीच तोल्स्तोय
का चेहरा दिखता है | यह कवि के “किसी भीतरी धागे का आखिरी
छोर” है | मध्य रात्रि में नगर में बैंड की धुन पर चलता
जुलूस देखिए – सड़क यहाँ एक खींची हुई काली जीभ है, और बिजली
के दिये मरे हुए दांतों का चमकदार नमूना | क्या शोभा यात्रा
किसी मृत्यु दल की ? विचित्र प्रोसेशन , क्विक मार्च ! बैंड वालों में कई प्रतिष्ठित पत्रकार नगर के | देखे हुए जाने पहचाने चेहरे | कई प्रकांड आलोचक , विचारक , जगमगाते कविगण ,
मंत्री , उद्योगपति , विद्वान , और शहर का कुख्यात हत्यारा डोमाजी उस्ताद – सब यहाँ दिखते भूत पिशाच काय | इस प्रोसेशन से आवाज आती है – “मारो गोली , दागो
स्साले को एकदम !” कवि भागता है और इस नतीजे पर पहुंचता है कि “यह सब क्या है /
किसी जन क्रान्ति के दमन निमित्त यह / मार्शल लॉ है !!” यहीं पर कविता अपने लोक से
सीधे जुड़ जाती है | कहना पड़ता है कि यह व्यक्ति संघर्ष की
कविता ही नहीं बल्कि लोक संघर्ष की कविता भी है | इन
पंक्तियों पर ध्यान दें तो बात और भी स्पष्ट होती है –
“सामने ही अंधकार स्तूप सा
भयंकर बरगद
सभी उपेक्षितों , सभी वंचितों
गरीबों का वही घर , वही छत
उसके ही ताल खोह अंधेरे में
सो रहे
गृहहीन कई प्राण” |
वह भागता है – भागता मैं दम
छोड़ , घूम गया कई मोड़ ! आत्मालोचन करता है | उसी बरगद के पास | और इस आत्मालोचन से निकला प्रश्न
– अब तक क्या किया , जीवन क्या जिया |
इसी दरम्यान वह पाता है “विचारों की रक्तिम अग्नि के मणि” |
एक गहरा अवसाद भरा पश्चाताप कि उसे “लोक-हित
क्षेत्र से कर दिया वंचित” | कवि कहता है , “खैर.. यह न समय है , जूझना ही तय है” | यहाँ कवि अपने पाठक को एक एजेण्डा पकड़ा देता है |
कविता में तिलक और गांधी भी
आते हैं | तिलक की नासिका से बहता गरम खून देखकर कवि
भावुक हो, कहता है – “हम अभी जिंदा हैं , चिंता क्या है” | गांधी कवि को एक शिशु सौंपते हुए
कहते हैं – “संभालना इसको , सुरक्षित रखना” | अब इसके बाद की कविता विचारों पर आधारित खुले औए सीधे संघर्ष के दृढ़
निश्चय से होती हुई निर्णायक लड़ाई तक की यात्रा पर ले चलती है | नीली झील में प्रतिपल काँपता अरुण कमल – मुक्ति ही लक्ष्य है | लोक संघर्ष का इससे बेहतर काव्य क्या अन्यत्र कहीं है ? आज जो बड़े आराम से अभिव्यक्ति के खतरे उठाने की बात करते हैं , मठ और गढ़ ढहाने की बात करते हैं , वे भूल जाते हैं
कि इसके ठीक बाद की पंक्ति में ही कवि दुर्गम पहाड़ों के उस पार जाने की अनिवार्यता
की बात भी करता है |
3.
लोक के प्रति पूर्ण आस्था और
समर्पण की अनन्य कविता है अज्ञेय की “असाध्य वीणा” | असाध्य वीणा के साधक की कृतज्ञता तो प्रकृति के लघुतम अवयवों तक जाती है | कविता के केंद्र में राजा के दरबार में रखी मंत्रपूत वीणा है जिसे कोई
कलावंत अब तक साध नहीं पाया था | यह वीणा तभी बोलेगी जब कोई
सच्चा स्वरसिद्ध साधक उसे अपनी गोद में लेगा | कुछ आलोचक कविता
को इस आधार पर लोक विरोधी बताते हैं कि इसमें कला साधक राजा के दरबार में अपनी कला
का प्रदर्शन करता है | जैसा कि ऊपर के अनुच्छेदों में स्पष्ट
किया गया है , लोक का राजा अथवा राज दरबार के साथ व्यवहार
इकहरा नहीं रहा है | जिस राम राज्य के प्रति भारतीय लोक के
मन में गहरी श्रद्धा और अगाध आस्था रही है वह भी एक राजा की ही मूर्ति है | और यहाँ तो राजा इस कला साधक को तात कह कर संबोधित करता है | प्रियंवद के समक्ष केवल राजा-रानी ही नहीं हैं , उस सभा में “जन” भी हैं | यह जन की आकांक्षा भी है
कि अभिमंत्रित वीणा को साध ले, ऐसा कोई साधक आए | असाध्य वीणा के तार क्या सिर्फ राजा रानी के मनोरंजन के लिए हैं ? नहीं , ऐसा तो कोई संकेत कविता में नहीं मिलता |
“तात ! प्रियंवद ! लो,यह सम्मुख रही तुम्हारे
वज्रकीर्ति की वीणा
यह मैं , यह रानी , भरी सभा यह
सब उदग्र , पर्युत्सुक
जन मात्र प्रतीक्षमाण !”
ध्यान दें कि कविता के आखिर
में वह “जनता” है जो कला साधक को धन्य-धन्य कहती है – “जनता विह्वल कह उठी , धन्य ! हे स्वरजित ! धन्य ! धन्य !” | क्या कविता से इस जनता को इसलिए निकाल बाहर किया जाए कि यह कविता अज्ञेय
की है | स्मरण करना चाहिए कि वीणा जब झनझना उठती है तो उसके
संगीत में किसने क्या सुना –
“इस को वह कृपा वाक्य था
प्रभुओं का
उस को आतंक-मुक्ति का आश्वासन
!
इस को वह भरी तिजोरी में सोने
की खनक
उसे बटुली में बहुत दिनों के
बाद अन्न की सोंधी खुदबुद |
किसी एक को नयी वधू की सहमी
सी पायल ध्वनि
किसी दूसरे को शिशु की
किलकारी |
एक किसी को जाल-फंसी मछली की
तड़पन
एक अपर को चहक मुक्त नभ में
उड़ती चिड़िया की |
एक तीसरे को मंडी की ठेलमठेल , गाहकों की आस्पर्धा भरी बोलियाँ
चौथे को मंदिर की ताल युक्त
घंटा ध्वनि |
और पांचवें को लोहे पर सधे
हथौड़े की सम चोटें
और छ्ठें को लंगर पर कसमसा
रही नौका पर लहरों की
अविराम थपक |
बटिया पर चमरौंधे की रुंधी
चाप सातवें के लिए
और आठवें को कुलिया की कटी
मेंड़ से बहते जल की छुल-छुल |
इसे गमक नट्टिन की एड़ी के
घुँघरू की
उसे युद्ध का ढोल” |
संगीत को नाद ब्रह्म कहा गया
है | वह जोड़ता है , तोड़ता
नहीं | प्रियंवद की संगीत साधना के पश्चात “इयत्ता सबकी अलग
अलग जागी / संघीत हुई / पा गई विलय” का तात्पर्य समझना होगा | यह विलय रेखांकित करने योग्य है | एक समूचा लोक
जीवंत रूप में यहाँ धड़कता हुआ उपस्थित है | इस प्रसंग को राज
सत्ता से जोड़ना उसे सीमित कर देने जैसा होगा | जहां
आतंक-मुक्ति का आश्वासन है , जहां बटुली में अन्न की सोंधी
खुदबुद है , नयी वधू की सहमी सी पायल ध्वनि , शिशु की किलकारी , जाल-फंसी मछली की तड़पन , मुक्त नभ में उड़ती चिड़िया , मंडी की ठेलमठेल , मंदिर की घंटा ध्वनि , लोहे पर सधे हथौड़े की सम
चोटें , लंगर पर कसमसा रही नौका पर लहरों की अविराम थपक , बटिया पर चमरौंधे की रुंधी चाप , कुलिया की कटी
मेंड़ से बहते जल की छुल-छुल , गमक नट्टिन की एड़ी के घुँघरू
की और युद्ध का ढोल भी है , वहाँ कैसे कह दें कि यह हिंदी
कविता का लोक नहीं है |
और जरा प्रियंवद कि साधना को
देखें | उसका समर्पण देखें |
क्या कहता है प्रियंवद , राजा को – “श्रेय नहीं कुछ मेरा /
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में / वीणा के माध्यम से अपने को मैंने सब कुछ को
सौंप दिया था / सुना आपने जो वह मेरा नहीं / न वीणा का था / वह तो सब कुछ की तथता
थी / महाशून्य / वह महामौन / अविभाज्य , अनाप्त अद्रवित , अप्रमेय जो शब्दहीन सब में गाता है” | कबीर ने यही
तो कहा था – तेरा तुझको सौंपता – नहीं ? अरुण कमल भी तो यही
कहते हैं – सारा लोहा उन लोगों का अपनी केवल धार |
कहने कि आवश्यकता नहीं कि “असाध्य वीणा” मनुष्य और प्रकृति के
सह-अवस्थान और अपने लोक के प्रति अगाध कृतज्ञता बोध की विलक्षण गाथा है | अपने लोक के प्रति कृतज्ञता-बोध से भरा कवि ही कहा सकता है – “आमि
तोमादेर-ई लोक” |
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"कृति ओर" (संपादक - डॉ .रमाकांत शर्मा) के लोकधर्मी काव्यालोचन अंक में प्रकाशित
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"कृति ओर" (संपादक - डॉ .रमाकांत शर्मा) के लोकधर्मी काव्यालोचन अंक में प्रकाशित
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नील कमल
244, बांसद्रोणी प्लेस
(मुक्त धारा नर्सरी- के. जी. स्कूल के निकट)
कोलकाता – 700070.
[मोबाइल नं . (0) 9433123379.]
244, बांसद्रोणी प्लेस
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