
अच्छी कहानी वह है जिसमें कविता हो और अच्छी कविता वह जिसमें कहानी । राकेश रोहित की इस एक कविता में न जाने कितनी कहानियाँ है । ऊपर से पंचतंत्र की कहानियों की याद दिलाने वाले किस्सों की प्रासंगिकता ऐसी कि मौजूदा समय में जनतंत्र के अंतर्विरोधों की कलई खुल जाती है, इन्हें पढ़ते हुए । कविता में चूहे हैं, केकड़े हैं, मेंढक है, और शुतुरमुर्ग, लोमड़ी, सारस, बंदर, बिल्ली, शेर, टिटिहरी भी । ये सब प्रकारांतर से आदमी के ही अलग-अलग रूपक हैं । जनतंत्र में इन अलग-अलग जीव-रूपों में आदमी है और इन सबको इनके इस हाल में देख कर जो हँस रहा है वह भी आदमी ही है । यह जैविकी का एक अद्भुत पिरामिड है जिसमें निचले स्तर से लेकर सबसे ऊपर वाले स्तर तक आदमी ही आदमी हैं, एक दूसरे का शिकार करते हुए ।
एक दृश्य है जिसमें अन्न का एक दाना मुँह में भर लेने को विकल आदमी है । यह साधारण जन हैं इस फलते-फूलते जनतंत्र में जिनके लिए आज भी पहली चिंता रोटी है । रोटी और रोजगार आज भी जिस समय में मनुष्य को सहज उपलब्ध नहीं एक ऐसे समय में कल्पना की जा सकती है कि इन प्राथमिक आवश्यकताओं कि पूर्ति के लिए उनमें आपस में किस तरह की होड़ होगी । अन्न से अधिक मुँह, रोजगार से अधिक हाथ और रोटी से बड़ी भूख, आपसी होड़ पैदा करते हैं । संसाधनों पर मुट्ठी भर लोगों का कब्ज़ा है । ऐसे में क्या आश्चर्य कि एक आदमी केकड़े की तरह अपने ही जैसे दूसरे आदमी की टांग खींचने के अमानुषिक विकल्प को चुन लेता है । यहीं से होड़ के लिए स्थितियाँ तैयार होती हैं ।
यहीं दूसरी ओर कूप-मंडूक आदमी है, शुतुरमुर्ग की तरह सर झुकाए आँधी के गुज़र जाने का इंतज़ार करता आदमी है । यह यथास्थितिवाद का समर्थक वर्ग है । इस व्यवस्था में जो सुविधाजनक स्थिति में है उसके लिए दुनिया सावन के अंधे की तरह सदा हरी-भरी है । कुंए के मेढक को बाहरी दुनिया की हलचल का ज्ञान नहीं है । उसे बाहरी हलचल में दिलचस्पी भी नहीं है । ऐसे लोगों से बदलाव की कोई उम्मीद करना बेकार है । जिन्हें ज़रा सा भी खतरा उठाना पसंद नहीं वे आंधियों को सर झुका कर गुज़र जाने देते हैं । अपनी रीढ़ को लगातार नरम और लचीला करता हुआ एक बुद्धिजीवी वर्ग ऐसे में अनायास याद आता है । उसके लिए संस्थानों की नौकरियाँ हैं, अकादमियों की लुभाती कुर्सियां हैं, पद-पुरस्कार और पैसा है । वह अपने कुंए में उछल-कूद करके अपने कर्तव्य की इति-श्री मान लेता है ।
पूंजी की लोमड़ी का पेट बहुत बड़ा है । उसने प्रलोभनों की थाली सजाई है । उसे अपना शिकार चाहिए । यह बाज़ार का हाल-हकीकत है जो कविता में प्रभावी ढंग से आता है । बाज़ार का न्याय बंदर का न्याय साबित होता है । यह पूंजी और सत्ता का साझा खेल है जिसमें साधारण आदमी हर बार ठगा जाता है । ऐसे में हमारी सामूहिक ताकत का क्या होता है । वह अपनी परछाईं से डरे हुए शेर की तरह भ्रमित है । अपनी परछाईं से डरा शेर अंततः अपनी ही परछाईं से लड़ने के लिए कुंए में कूद जाता है । यह व्यवस्था की जीत है । संगठित मनुष्य को एक दूसरे से लड़ा कर व्यवस्था अंततः उसकी संगठित शक्ति का ही आखेट करती है ।
अब जो बच जाता है वह है दुनिया को बचा ले जाने के भ्रम में जीता आदमी, जैसे आकाश को गिरने से रोकने की कोशिश में अपनी टांग उठाए टिटिहरी । जैसे आकाश को अपने पंजों के नीचे महसूस करती चिड़िया । और जो सबसे ताकतवर आदमी है वह इस मूर्खता पर हँसता है । दरअसल यह वही आदमी है जिसे जन साधारण ने अपनी परेशानियाँ दूर करने के लिए चुना है । वह जनता का निर्वाचित प्रतिनिधि है जो जनतंत्र में ईश्वर हो चुका है । उसे जनता के दुख-सुख से भला क्या लेना-देना । राकेश रोहित अपनी कविता में बहुत सादगी के साथ अपने पाठक को लोकतंत्र के अभयारण्य की सैर पर ले चलते हैं ।
लोकतंत्र में ईश्वर..
(राकेश रोहित)
एक आदमी
चूहे की तरह दौड़ता था
अन्न का एक दाना मुँह में भर लेने को विकल।
एक आदमी
केकड़े की तरह खींच रहा था
अपने जैसे दूसरे की टाँग।
एक आदमी
मेंढक की तरह उछल रहा था
कुएँ को पूरी दुनिया समझते हुए।
एक आदमी
शुतुरमुर्ग की तरह सर झुकाए
आँधी को गुज़रने दे रहा था।
एक आदमी
लोमड़ी की तरह न्योत रहा था
सारस को थाली में खाने के लिए।
एक आदमी
बंदर की तरह न्याय कर रहा था
बिल्लियों के बीच रोटी बाँटते हुए।
एक आदमी
शेर की तरह डर रहा था
कुएँ में देखकर अपनी परछाईं।
एक आदमी
टिटहरी की तरह टाँगें उठाए
आकाश को गिरने से रोक रहा था।
एक आदमी
चिड़िया की तरह उड़ रहा था
समझते हुए कि आकाश उसके पंजों के नीचे है
एक आदमी...!
एक आदमी
जो देख रहा था दूर से यह सब,
मुस्कराता था इन मूर्खताओं को देखकर
वह ईश्वर नहीं था
हमारे ही बीच का आदमी था
जिसे जनतंत्र ने भगवान बना दिया था ।
चूहे की तरह दौड़ता था
अन्न का एक दाना मुँह में भर लेने को विकल।
एक आदमी
केकड़े की तरह खींच रहा था
अपने जैसे दूसरे की टाँग।
एक आदमी
मेंढक की तरह उछल रहा था
कुएँ को पूरी दुनिया समझते हुए।
एक आदमी
शुतुरमुर्ग की तरह सर झुकाए
आँधी को गुज़रने दे रहा था।
एक आदमी
लोमड़ी की तरह न्योत रहा था
सारस को थाली में खाने के लिए।
एक आदमी
बंदर की तरह न्याय कर रहा था
बिल्लियों के बीच रोटी बाँटते हुए।
एक आदमी
शेर की तरह डर रहा था
कुएँ में देखकर अपनी परछाईं।
एक आदमी
टिटहरी की तरह टाँगें उठाए
आकाश को गिरने से रोक रहा था।
एक आदमी
चिड़िया की तरह उड़ रहा था
समझते हुए कि आकाश उसके पंजों के नीचे है
एक आदमी...!
एक आदमी
जो देख रहा था दूर से यह सब,
मुस्कराता था इन मूर्खताओं को देखकर
वह ईश्वर नहीं था
हमारे ही बीच का आदमी था
जिसे जनतंत्र ने भगवान बना दिया था ।
kavita behtar h
ReplyDeleteusse bhi achcha h
ek dana anaj ugana
ek paudha lgana
kisi murjhate ped ko sinchna
kisi jiv ko pani pilana
aur bhi jane kya kya
kavita ishwar ka vrdan h
aapke bhitr kavita h
to, aap ek insan h
vqt nhi hota
ReplyDeletevrna jyada achchi pratikriya deti
sunder aur jiwant kavita
ReplyDeletegahari sooch....jab kavita me rup grahan karti hai to padhne vaale ko sukh de jaati hai...vah...
ReplyDeletebahut pyara vyang nice - badhaee
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