Tuesday, August 16, 2016

कविता-26: वैश्वीकरण के बाद हिन्दी कविता

वैश्वीकरण के बाद हिन्दी कविता की सामान्य प्रवृत्तियाँ ( नयी सदी की हिन्दी कविता के मिजाज की एक पड़ताल) -नील कमल ________________________________________________________________________________


भूमिका-

हिन्दी कविता में समकालीनता एक षड़यंत्र है । पिछले लगभग चालीस पचास वर्षों की हिन्दी कविता को समकालीन कहना सुनना बड़ा ही कष्टप्रद प्रतीत होता है । इस समकालीनता में नयी कविता के उस दौर के कवियों से लेकर अभी अभी जिन कवियों ने अपनी पहचान बनाई है सब एक साथ समेट लिए जाते हैं । इस समकालीनता में रचना से अधिक रचनाकार को महत्व प्राप्त रहा है । कविता कवि के पीछे पीछे चलती रही है । ऐसे में युगीन काव्य प्रवृत्तियों पर बात करने के लिए अनुकूल वातावरण का बन पाना कठिन रहा है । 


कविता की आलोचना के मामले में मेरा यह मानना है कि स्वाभाविक रूप से आलोचना के विकास क्रम में तीन चरण होते हैं । पहले चरण में आलोचना रचनाकार या कवि पर केंद्रित होती है । विकास के दूसरे चरण में रचनाकार या कवि की जगह रचना या कविता केंद्र में आ जाती है । इस दूसरे चरण में आलोचक कवि के आभामंडल से मुक्त होकर आलोचना करता है । रचना का तार्किक और युक्तिसंगत विश्लेषण करता है । तीसरे और अंतिम चरण में आलोचक रचनाकार और रचना दोनों से तटस्थ दूरी रखते हुए काव्य प्रवृत्तियों की खोज करने की ओर उन्मुख होता है और उन्हें सूत्रबद्ध करता है । समकालीन हिन्दी कविता में आलोचना अपने पहले चरण में ही सुखी और प्रसन्न रही आई है । और यह अनायास नहीं हुआ होगा । 


समकालीनता की आभा में कुछ गिने चुने नामों को सदा दीप्त रखने के साहित्यिक प्रयत्न भी अवश्य हुए होंगे । अब जबकि नयी सदी अपने सोलहवें साल में है थोड़ा ठहर कर युगीन प्रवृत्तियों के लिए आवश्यक प्रयत्न होने चाहिए । नयी सदी में जिस एक घटना ने मनुष्य के जीवन को सर्वाधिक प्रभावित किया है वह है वैश्वीकरण | बहुत से विद्वान इसे भू-मण्डलीकरण भी कहते हैं | 1990 के दौर में भारत में उदारीकरण और निजीकरण का हाथ पकड़ कर यह ग्लोबलाइज़ेशन का जिन्न लगातार आकार में बड़ा और भयंकर होता गया है | आर्थिक कारणों से विरोध के बावजूद ये नीतियाँ प्रभावी रही हैं और इन्होंने मनुष्य के जीवन के हर पहलू को प्रभावित किया है | इन सर्वथा नई और जटिल प्रवृत्तियों को समकालीनता के मुहावरे में देखना अब पर्याप्त नहीं होगा | सुविधा के लिए ग्यारह कवियों के अलग अलग संग्रहों को सामने रख कर उनकी ऐसी कविताओं के हवाले से आगे बात की जाएगी जिससे कि इस दौर की हिन्दी कविता अर्थात वैश्वीकरण के बाद की हिन्दी कविता की कुछ सामान्य प्रवृत्तियों को रेखांकित किया जा सके | यह चयन महज अध्ययन की सुविधा के लिए है | ये ग्यारह कवि बतौर स्टडी-सैम्पल यहाँ सामने रखे गए हैं | कहना न होगा कि हिन्दी कविता का फ़लक इससे कहीं बड़ा और व्यापक है |


वैज्ञानिक चिंतन-
हिन्दी कविता में ईश्वर और धर्म को लेकर वैज्ञानिक दृष्टि रेखांकित करने लायक है । ज्यादातर कवि धर्म और ईश्वर जैसे विषय को लेकर रैडिकल अप्रोच के साथ खड़े पाये जाते हैं । दिनेश कुशवाह कहते हैं - "ईश्वर के पीछे मजा मार रही है / झूठों की एक लम्बी जमात / एक सनातन व्यवसाय है / ईश्वर का कारोबार" (‘ईश्वर के पीछे’ कविता से) । दिनेश कुशवाह ईश्वर की सबसे बड़ी खामी के रूप में जिस बात को रेखांकित करते हैं वह यह कि वह समर्थ लोगों का कुछ नहीं बिगाड़ पाता । कवि का सपष्ट कहना है कि अब आदमी अपना ख़याल खुद रखे । कहने की आवश्यकता नहीं कि एक लम्बे अरसे से हमारे सामाजिक जीवन में ईश्वर का कारोबार खूब फलता फूलता रहा है । बाबाओं और महात्माओं की न जाने कितनी दुकानें चल निकली हैं इस बीच । ऐसे में सुचिंतित और तार्किक प्रतिकार कविता में दर्ज करना कविता का धर्म है ।

मानवीय संबंधों में तनाव-
स्वाभाविक मानवीय संबंधों में पैदा होता तनाव कविता में दृष्टि आकर्षण करता है । ये सम्बन्ध मित्रता के हों या पारिवारिक हों इनमें विश्वास की जो जमीन थी वह सिकुड़ती गई है । शिरीष कुमार मौर्य कहते हैं -"ढलती शाम वे पहुँचे थे / और मैं लगभग निरुपाय था उनके सामने / थोड़ा शर्मिंदा भी / घर में नहीं थी इतनी जगह / यह एक मशहूर पहाड़ी शहर था" (‘पहाड़ पर दोस्त’ कविता से)। कवि के गाँव से आठ दस लोग अचानक मिलने आ जाते हैं और कवि के घर में उनके लिए जगह की कमी है । वह उन्हें होटल में ठहराता है । अगली सुबह वे लौट जाते हैं । यहाँ कवि को दुःख इस बात का है कि वे उस तक पहुँचे बिना ही चले गए थे । बिना मिले । उनके जाने के बाद भी वह तनाव घर की उन कुर्सियों पर रह जाता है जिनपर अभी पिछली ही शाम वे तन कर बैठे थे और हँस बोल रहे थे । शहरी जीवन की त्रासदी होने के साथ साथ यह मानवीय संबंधों में पैदा होते तनाव की कविता भी है । यह तनाव न होता तो जैसे तैसे करके कवि के घर में आठ दस लोगों के लिए जगह निकल आती । यह दरअसल नयी सामाजिक व्यवस्था है जिसमें परिवार के बाहर के लोगों के लिए गुंजाइश ही नहीं रखी गई है । न्यूक्लियर फैमिली का एक कटु यथार्थ है यह ।

सपनों और उम्मीदों का साथ-
तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद सपनों और उम्मीदों का साथ हिन्दी कविता ने नहीं छोड़ा है । सपनों और उम्मीदों पर यह भरोसा हिन्दी कविता की एक खासियत रही है । नीलोत्पल कहते हैं -"मैंने अपने दिनों को उम्मीदों से सराबोर रखा / प्यार के उन दिनों की तरह / सपनों से भरपूर उमंगों में जीते हुए" (‘मैंने अपने दिनों को उम्मीदों से सराबोर रखा’ कविता से) । यह सपना दुनिया को सुंदर बनाने का है । और सारी कोशिशें इसी उद्देश्य के लिए हैं । कवि कहता है , मेरे मरने के बाद भी कोशिशें जारी रखना । ऐसा भी नहीं है कि इन कोशिशों में मिलने वाली संभावित हार से कवि नावाकिफ़ है । वह जानता है कि हार भी हो सकती है । लेकिन बावजूद इसके उसेवेक बात पर यक़ीन है कि कोशिश भरी हार भी दूसरों के लिए प्रेरणा बन सकती है । नाउम्मीदी से भरे समय में भी उम्मीद का साथ नहीं छोड़ती है कविता ।

अकेले होते जाने के ख़िलाफ़-
उदारीकरण और वैश्वीकरण ने मनुष्य की सामाजिकता को सबसे पहले चुनौती दी है । उसने उसे बहुत अकेला कर दिया है ।और उसके संगठित होने के समस्त विकल्पों को ही नष्ट करने का काम किया है । उसने मनुष्य को अकेला करके दरअसल अपने को ही सुरक्षित करने का काम किया है । और हमारे देखते ही देखते समाज की जगह बाजार ने ले ली । इस त्रासदी को हन्दी कविता ने बखूबी उजागर किया है अपने शब्दों में । संतोष चतुर्वेदी कहते हैं -"वे हमें इस तरह कोरा कर देना चाहते हैं कि / जब वे लिखना चाहें मौत / उन्हें तनिक भी असुविधा न हो / उन्हें रोकने टोकने वाला न हो / और हम लाख चाहने के बावजूद न लिख पाएँ / अपना मनपसन्द शब्द , जीवन" (‘वे हमें अकेला कर देना चाहते हैं’ कविता से) । अपनी केंद्रिकता में उदारीकरण , निजीकरण और वैश्वीकरण ने एक ऐसी व्यवस्था रची है जिसने समाज को तोड़नेबक काम किया है । इस नई व्यवस्था में व्यक्ति के शोषण के सारे इंतज़ाम हैं हालांकि ऊपर ऊपर यह व्यवस्था उदार दिखती है । इस आयरनी को कविता ने न सिर्फ पहचाना है बल्कि बेपर्दा भी किया है ।

सामाजिक विसंगतियाँ-
कविता की नज़र में वे तमाम सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियाँ बराबर बनी रहती हैं जिनके कारण व्यवस्था में शोषण और वंचना की जमीन तैयार होती है । ये परिस्थितियाँ ऐसी हैं जिनमें हाशिए पर जीने वाला आदमी और तीव्रता के साथ हाशिए की तरफ धकेल दिया जाता है । यह आर्थिक सामाजिक प्रक्रिया , मार्जिनलाइजेशन ऑफ़ द मार्जिनल्स कहलाती है । बहुत सोची समझी साजिश के तहत किताब उठाने लायक हाथों को बंदूक उठाने के लिए विवश करती है यह व्यवस्था । मनोज छाबड़ा कहते हैं -"बस्ता उठाने लायक हाथों को / मजबूर किया जाएगा / कि पुस्तकें फेंक दें / उठा लें बंदूकें / उन्हें बचपन में ही रोक लेने की नहीं होगी कोशिश कोई" (‘ये तो तय है’ कविता से) । गरीबों और बेरोजगारों को अपने तरीके से इस्तेमाल करने की नई नई तरकीबें निकालने के लिए यह व्यवस्था पैसे खर्च करती है । ये पैसे उनकी बेहतरी के लिए नहीं खर्च किए जाते । कविता इस कुचक्र को बेनक़ाब करती है ।

अकारथ प्रयत्नों का समय-
हमें यह स्वीकार करना ही होगा कि कविता जिन उच्चतर मूल्यों के पक्ष में डट कर खड़ी है वे मूल्य स्वयं जीवन और समाज में संकट में हैं । और न सिर्फ संकट में हैं बल्कि लगभग अनुपस्थित हैं । जो नहीं है कविता उसकी आकांक्षा के साथ खड़ी है । जब भी इस दौर की कविता का इतिहास लिखा जाएगा उसमें यह बात जरूर लिखी जाएगी कि जब जीवन और समाज में कहीं जनतांत्रिकता नहीं बची थी तब कविता में उसकी तीव्र आकांक्षा पाई गई । यही नहीं जब चहुँ ओर धर्म और अध्यात्म का बाजार था तब कविता मानवता के पक्ष में आवाज उठा रही थी । और राजनीति जब संगठित अपराध के हवाले थी तब कविता प्रतिरोध के गीत गाती थी । लेकिन तब लिखना यह भी पड़ेगा कि तमाम सदिच्छाओं के बावजूद कविता मनुष्य के लिए एक बेहतर समाज बना पाने में व्यर्थ रही थी । उसके सारे प्रयत्न अकारथ गए थे । इस दौर के कवि को इस व्यर्थता के बोध के साथ ही कविता के इतिहास में नत्थी करना होगा । केशव तिवारी कहते हैं -"कविता में तमाम झूठ / पूरे होशो हवाश में मैं बोलता रहा हूँ / तुम्हें दिखाए और देखे / सपनों का हत्यारा मैं खुद / यह लो मेरी गर्दन हाजिर है" (‘मैं खुद’ कविता से) ।

श्रम विरोधी समय-
कविता की एक आकांक्षा बराबर रही है कि समाज में श्रम को उसके उचित मूल्य के साथ उचित मर्यादा और सम्मान भी मिले । किन्तु वास्तविकता इसके विपरीत रही है । श्रम का चरम शोषण और मुनाफ़ा कमाने की बढ़ती लिप्सा इस दौर की एक रेखांकित करने लायक प्रवृत्ति रही है । प्रतिरोध की लड़ाइयों को हर सम्भव तोड़ने या कमजोर करने के सारे उपाय इस व्यवस्था ने ईजाद कर लिए हैं । शंकरानंद कहते हैं -" अगर उनके हाथ लगती यह पृथ्वी / तो वे खूब सजाते इसे / इतना कि यह पृथ्वी सबको सुंदर लगती / फिर भी एक बात तो होती ही / कि सब कुछ उजाड़ने वाले कहाँ / चैन से बैठे रह सकते थे" (‘कारीगर’ कविता से) । कारीगर के हाथ में वह हुनर है कि वह दुनिया को सुंदर बना सके । लेकिन यह सुंदरता उन्हें रास नहीं आती जिनका जीवन शोषण और मुनाफ़े पर टिका है । कारीगर का हुनर तभी तक उन्हें बर्दाश्त है जब तक वह उनकी व्यवस्था में उनके स्वार्थ के अनुकूल काम करता रहे । एक सुंदर और हँसती खेलती दुनिया के वे हर हाल में ख़िलाफ़ हैं और वे हर उस सुंदर चीज को उजाड़ देंगे जो उनके अनुकूल नहीं है ।

अमानवीय भूमंडलीकरण-
मुनाफ़ा इस भूमंडलीकरण का मूल मन्त्र है । उदारीकरण और निजीकरण का हाथ पकड़ कर इस भूमंडलीकरण ने मनुष्य को छोटी छोटी खुशियाँ , छोटी छोटी राहतें देकर उसका सुखी संसार छीन लिया है । मनुष्य इस नए और बदले हुए संसार में अपने पर्यावरण से भी पूरी तरह उदासीन होता चला गया है । पेड़ों ने मोबाईल टावरों के लिए जगह दे दी । निदा नवाज कहते हैं -"उस पेड़ (चिनार) की जगह / हमारे आँगन में लगा है / एक मोबाईल टावर / टहनियों जी जगह यंत्र / घोंसलों की जगह गोल गोल ऐन्टीना" (मोबाईल टावर’ कविता से) । तकनीक ने मनुष्य को सुविधाभोगी तो बना दिया है लेकिन इसके एवज में उसके जीवन की सहजता ले ली है ।

मॉल संस्कृति-
बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मुक्त बाजार पर दखल कुछ इस कदर हुआ है कि देशी और कुटीर शिल्प की साँसें उखड़ने लगी हैं । विकास के चमक दमक वाले इस दौर में आदमी की हैसियत उसकी क्रय शक्ति से तय होती है । स्कूल, अस्पताल , सड़कें, पानी , बिजली , रोजगार जैसे मुद्दों से ऊपर जो मुद्दा बाजार में प्रमुखता पाता है वह यह कि गाड़ी का कौन सा नया मॉडल बाजार में आया है या कि पेंटियम थ्री के बाद पेंटियम फोर आया है । यह नया बाजार मनुष्य को मारने वाला बाजार है । मृत्युंजय वॉल मार्ट के हवाले से कहते हैं -"छोटे बनिया औ व्यौपारी / लकड़ी राशन औ तरकारी / सभी बिकेगा बड़े मॉल में / बेरोजगारी औ लाचारी / थोक भाव से उपजायेंगे / स्विस बैंक में रख खायेंगे" (वॉल मार्ट अभ्यर्थना’ कविता से) ।

किसान त्रासदी-
नई अर्थ व्यवस्था की मार सबसे अधिक देश के किसान झेल रहे हैं । वे किसान जिन्हें खेती के आलावा कोई और काम करना नहीं आता और जो परंपरागत रूप से इसे ही अपने जीवन और जीविका से जोड़ कर देखते हैं वे इस तथाकथित उदार व्यवस्था में मौत के मुँह में खड़े हैं । सरकारों के पास इनके लिए राहत के नाम पर कर्ज़ का फंदा है जिसमें अंततः वह और भी उलझ कर रह जाता है । कई बार तो वह इस कर्ज की वजह से आत्महत्या भी करने के लिए विवश दिखाई देता है । हिन्दी कविता का कोई मुकम्मल दस्तावेज किसान की इस त्रासदी से गुजरे बगैर नहीं बन सकता । संवेदनशील कविता इस दर्द से अछूती नहीँ रह सकती । सुरेश सेन निशांत कहते हैं -"वह मरा / जब फसल कटनी के दिन थे / वह मरा / जब बादलों को बरसना था / फूल खिले हुए थे / ख़ुशी की बयार में झूम रहा था सेंसेक्स" (‘किसान’ कविता से) । पूरे देश के लिए अन्न पैदा करने वाले किसान की मौत पर दो आँसू बहाने वाला भी कोई नहीं है इस उदार अर्थव्यवस्था में ।

सहजता से दूर जाता मनुष्य-
सहज स्वभाविक जीवन को धकेल कर अपने पैर पसारता आधुनिक जीवन कविता की चिंता का एक जरूरी विषय रहा है । सामाजिकता के ताने बाने को तार तार करती हुई जो नई समाज व्यवस्था बनी है उसमें सहजता की जगह कृत्रिमता ने हड़प ली है । ऐन्द्रिक सुख और व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति इस व्यवस्था में चरम उपलब्धि के रूप में देखे जाते हैं जबकि दूसरे मनुष्य के लिए भावनाएँ अपनी स्वाभाविक ऊष्मा खोती जा रही हैं । दिखावे की इस नई दुनिया को देखकर कमल जीत चौधरी कहते हैं -"एक ऐसे समय में / तुमने थमा दिया है मुझे / ओस से भीगा सुच्चा सच्चा लाल एक फूल / जब फूल का अर्थ झड़ झड़ कर / आर्चिज़ गैलरी हो गया है" (‘एक ऐसे समय में’ कविता से) ।

जिन पुस्तकों से कविताओं के संदर्भ लिए गए- 

1.ईश्वर के पीछे – दिनेश कुशवाह 


2.ऐसी ही किसी जगह लाता है प्रेम – शिरीष कुमार मौर्य 


3.पृथ्वी को हमने जड़ें दीं – नीलोत्पल 


4.दक्खिन का भी अपना पूरब होता है – संतोष कुमार चतुर्वेदी 


5.तंग दिनों की ख़ातिर – मनोज छाबड़ा 


6.तो काहे का मैं – केशव तिवारी 


7.पदचाप के साथ – शंकरानंद 


8.बर्फ़ और आग – निदा नवाज़ 


9.स्याह हाशिए – मृत्युंजय 


10.कुछ थे जो कवि थे – सुरेश सेन ‘निशांत’ 

11.हिन्दी का नमक – कमल जीत चौधरी


संपर्क –
नील कमल
244, बांसद्रोणी प्लेस (मुक्तधारा नर्सरी के जी स्कूल के निकट) ,कोलकाता -700070 मोबाइल – (0)9433123379

(सेतु - 21 में प्रकाशित)


7 comments:

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