अभी न होगा मेरा अन्त
[समकालीन हिन्दी कविता पर एक टिप्पणी]
सभ्यता के विकास के साथ कविता की ज़रूरत के बढ़ते जाने और कवि-कर्म के कठिन होते जाने की बात आचार्य रामच्न्द्र शुक्ल ने बहुत पहले ही उठाई थी।सम्भवत: आज हम सभ्यता के उसी बिन्दु पर हैं जहां कविता जरूरी भी है और दुखद ढंग से अप्रासंगिक भी।
हिन्दी आलोचना ने तो कविता का मर्सिया बहुत पहले ही पढ़ना शुरू कर दिया था।हमारे समकालीन हिन्दी कवि कविता के तट पर चलने से अधिक कहानी और उपन्यास की फेनिल लहरों पर तैरना जरूरी समझने लगे हैं।फिर भी कविता है कि साहित्य के मैदान में दूब की तरह उगी है और बार-बार झुलस कर भी हरी है।कुछ तो बात है कि कविता की जरूरत अभी भी बची है।जैसे मन्दिर-मस्जिद-गिरजा-गुरुद्वारे जाकर मनुष्य मन से थोड़ा अधिक निर्मल और उदार हो जाता है; जैसे नदी के तट पर,पहाड़ों की गोद में या हरे-भरे खेतों के पास जाकर मनुष्य का मन थोड़ा अधिक उन्मुक्त हो जाया करता है, कविता के पास आकर मनुष्य पहले से थोड़ा बेहतर मनुष्य जरूर बनता है।इसका यह अर्थ बिलकुल न लगाया जाए कि कविता सभी दुखों की दवा है। आधुनिक हिन्दी कविता के सबसे भरोसेमन्द कवि "मुक्तिबोध" ने स्पष्ट चेतावनी दी है कि कविता पर जरूरत से ज्यादा भरोसा करना मूर्खता होगी।
जीवन के जटिल यथार्थ और संश्लिष्ट अनुभवों की अभिव्यक्ति के लिये कविता से बेहतर औजार भला क्या हो सकता है।अभिव्यक्ति के लिये उठाया गया औजार ही रचना की शक्ति और सीमा को तय करता है।देखा जाए तो साहित्य की सभी विधाएं कविता का ही विस्तार हैं।हिन्दी में कवियों की कमी नहीं। अच्छे और सच्चे कवि फिर भी कम ही देखने में आते हैं।कविता न तो बन्दूक है, न ही बुलेट।वह तो बस रास्ता बताती है, चलना खुद को ही होता है।अपना काम कविता के जिम्मे सौंप कर हम सो नहीं सकते।हिन्दी में अच्छी कविताएं भी लिखी जा रही हैं। फिर भी ये उन तक नहीं पहुंच रही हैं जिनको ये सम्बोधित होती हैं।कविता का दायरा पढ़े-लिखे लोगों तक सिमटा हुआ है।क्या कविता में जीवन का ताप भी है?या फिर वह संवेदनशील हृदय का काव्याभ्यास भर ही है?क्या कविता का सच कवि का भोगा-जिया सच भी है?दृश्यगत यथार्थ और अनुभूत यथार्थ के बीच की फांक क्या हिन्दी कविता में नहीं दिखती?
इधर हिन्दी कविता में छ्न्दों की वापसी की सुगबुगाहट भी चल निकली है।छन्द में लौटने का अर्थ दोहा,चौपाई, रोला, सोरठा और छ्प्पय के जाल बुनना नहीं हो सकता।छन्द की वापसी दर असल कविता में जीवन की वापसी होगी।यह काम कविता की नई पीढ़ी को ही करना होगा।कविता को कृत्रिम-यथार्थ के दलदल से निकालना होगा।यह काम विचार के प्रति गहरी ईमानदारी से ही सम्भव है।अगर भूख के नाम पर आपके पास एक या दो व्रत-उपवास की ही अनुभव-जन्य पूंजी है तो भूख पर कविता लिखने का नैतिक हक़ आपका नहीं बनता।कबीर-तुलसी यदि खेत-खलिहान और चौपाल से लेकर बड़े अकादमिक संस्थाओं तक समान रूप से समादृत हैं तो इनकी जड़ों को पहचानना, कारणों को जानना बेहद जरूरी है।अब जरूरी है कि कविता की दुनिया कागजी नहीं, जमीनी हो।लगभग कदमताल करती हिन्दी कविता के सामने आगे बढ़ने की चुनौती है।आलोचना इस काम में कविता की मदद कर सकती है।आलोचना और रचना के बीच का रिश्ता लोहा और लोहार का है।उसका काम सिर्फ़ लोहे पर चोट करना नहीं बल्कि इस तरह चोट करना है कि लोहे में धार पैदा हो।यही धार लोहे को हथियार में बदलती है।हिन्दी कविता को शिल्प के अपर्याप्त होने के मिथकों को भी तोड़ने की जरूरत है।उससे भी बड़ी चुनौती है जन-जन तक पहुंचने की,उनकी खैर-खबर लेने की।
इन दिनों हिन्दी कविता में सत्रह से लेकर सत्तर-पार तक की पीढियां एक साथ सक्रिय हैं।कविता के लिये कोई समय आसान नहीं होता,पर कठिन और चुनौतीपूर्ण समय में किसी दौर की कविता अपने पूर्ववर्ती समय से अलग और व्यतिक्रमी हो यह तो जरूरी है।कठिन समय के दुख अनेक हैं।आने वाले समय में कविता की चुनौती होगी जनतन्त्रिक मूल्यों की स्थापना के साथ इन दुखों को कम करना।ऐसे में प्रतिबद्धता और पक्षधरता द्वारा ही कवि की अपनी समकालीनता तय होगी।समकालीन कविता को लेकर शिकायतें तो हो सकती हैं किन्तु दुर्भाग्य से इसे उस अबला की तरह मान लिया गया है जिसके बगल से कोई भी छुटभैया आलोचक राह चलते टिटकारी मार कर गुजर सकता है।
विजय कुमार हिन्दी के चर्चित आलोचक हैं।हिन्दी कविता से इनकी शिकायतें गम्भीर किस्म की हैं("अनुभव के मानकीकरण के खिलाफ़"-वागर्थ,अक्तूबर २००४)- शिकायत यह कि:
१.हिन्दी की युवा कविता इधर पिछले अनेक वर्षों से आख्यानात्मक एकरसता का शिकार हो गई है।
२.कविता में लम्बे-लम्बे ब्यौरों और तथ्यपरकताओं का अम्बार लगा है।
३.यह एक शिथिल और मोनोलिथिक संसार भी है।
४.लगता है जैसे ज्यादातर कवि अपने प्रामाणिक होने को लेकर जरूरत से ज्यादा सतर्क हैं।
५.भाषा में अर्थ की व्यापक अनुगूंजों की तलाश का मसला फ़िर भी बाकी रहता है।
यह हिन्दी कविता से शिकायत कम उसपर आरोप ज्यादा है।इसके लिये वे कवि भी जिम्मेदार हैं जो कविता के नाम पर अल्लम-गल्लम कुछ भी लिख मारते है।अखबार की रिपोर्ट की तरह ये कविताएं दूसरे ही दिन अपनी प्रासंगिकता खो देती हैं।दुर्भाग्यजनक होते हुए भी सच है कि हमारे समय की अधिकांश कविताएं सतही हैं।इसका खामियाजा उन "जेनुइन" कविताओं को देना पड़ता है जो समय से गहरे में जाकर संघर्ष कर रही होती हैं।समकालीन कविता को सही परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की जरूरत बहुत ही मुनासिब जान पड़ती है।
पंकज चतुर्वेदी ने कविता पर कई हल्की-फ़ुल्की टिप्प्णियां की हैं("पड़ताल"-वागर्थ, जनवरी-जून २००५)-वे प्रमाणित करना चाहते हैं कि:
१.यह स्पर्श-कातर कवियों का समय है।
२.हिन्दी कविता की एक पूरी पीढ़ी लम्बे अरसे से बिना किसी विश्वसनीय आलोचना के अपनी उत्कृष्टता का दावा कर रही है।
३.अन्यथा सफ़ल, सन्तुष्ट सी दिखती इन कविताओं का ऋण-पक्ष यह है कि यह महत्वाकांक्षी लेखन नहीं है।
ध्यान देने की बात यह है कि हिन्दी कविता का आलोचक बड़ी हड़बड़ी में है।वह बहुत जल्द कविता की बनावट और बुनावट में व्यापक तोड़-फ़ोड़ देखना चाहता है, हालांकि जानता वह भी है कि यह काम कितना आसान है।तभी तो मैनेजर पाण्डेय लिख पाते हैं कि,"समकालीन कवियों पर लिखने के लिये कोई इसलिए भी तैयार नहीं है कि जरा सा सच बोल देने पर ये लोग बुरा मान जाते हैं"।
समकालीन हिन्दी कविता का दुर्भाग्य है कि उसके पास समर्थ और विश्वसनीय आलोचक नहीं हैं।जो आलोचक हैं वे भी "ज़रा सा सच"ही बोल पाते हैं।नतीज़ा यह होता है कि घूरे पर फ़ेंके जाने लायक साहित्य को तो पुरस्कारों-सम्मानों से लाद दिया जाता है लेकिन मूल्यवान-साहित्य नेपथ्य में उपेक्षित पड़ा रह जाता है।वरना क्या कारण है कि वीरेन डंगवाल जैसे ज़रूरी और महत्वपूर्ण कवि को यह कहना पड़ता है कि,"कवि का सौभाग्य है पढ़ लिया जाना"("वीरेन डंगवाल की कविता"-समकालीन कविता,अंक-४)। सचमुच, कवि का सौभाग्य उसको पढ़ लिया जाना ही है।यह पढ़ने वाला अर्थात पाठक कौन है?क्या कविता के आलोचक कविताएं पढ़ते भी हैं?
आलोचक का ज़रूरी काम अच्छी कविताओं को सामने लाने के साथ-साथ कमज़ोर कविता को हतोत्साहित करना भी है("कवियों की पृथ्वी", अरविन्द त्रिपाठी)।
बेशक, यह आलोचना का निजी क्षेत्र है। यहां ध्यान देने की बात यह भी है कि आलोचक को कविता के पास चिकित्सक के मनोभाव से जाना चाहिये। वह उसका रोग तो अवश्य बताए किन्तु उसका वास्तविक काम रोग का निदान और कविता की सेहत का ख़्याल रखना है। हिन्दी आलोचना में इस चिकित्सक मनोभाव की बड़ी कमी है। साहित्य के बाज़ार मे, रचनाकार के, ब्रान्ड में तब्दील होने का यह जादुई समय है, जिसकी तहक़ीकात हिन्दी आलोचना को अभी करनी है।
कविता में जनतांत्रिक मूल्यों की स्थापना के लिये पिछले दशक को याद किया जाएगा। कविता का जगत अब दो-चार या दस बड़े नामों या घरानों की किलेबन्द दुनिया नहीं है । कविता के जगत में "मोनोपोली"का टूटना संतोष का अनुभव देता है । यहां नित नवागतों की आवाजाही है । आलोचना यदि सभ्यता -समीक्षा है तो कविता समग्र रूप में जीवन की ही आलोचना है । यह संतोष की बात है कि विचार , शिल्प और रचना-विधान के घेरे से बाहर समकालीन हिन्दी कविता में जीवन की यह आलोचना विविध रूप में दिखाई देती है । हिन्दी कविता अब इस मुगालते से उबर चुकी है कि वह सामाजिक ढांचे में कोई व्यापक फ़ेरबदल कर सकती है । लेकिन समाज को बेहतर बनाने की लड़ाई में कविता पीछे नहीं है । कविता के केन्द्र का महनगरों से बाहर छोटे-छोटे कस्बों , शहरों और गांवों में प्रतिष्ठित होना कविता के जनतन्त्र को ज्यादा भरोसेमन्द बनाता है । समय के जादुई यथार्थ को समकलीन हिन्दी कविता बराबर तोड़ती है । इसमें उन थोड़े से कवियों की भूमिका कम नहीं है जिनके पास साहित्य में बतौर ताकत न तो जोड़-तोड़ का गणित होता है और न ही भरोसेमन्द कोई आलोचक । अभिव्यक्ति की ईमानदारी और भाषा का कौमार्य ऐसे कवियों को महत्वपूर्ण और विश्वसनीय बनाते हैं । ऐसे कवि ही भविष्य की कविता के धारक और वाहक बनेंगे । और भविष्य की कविता ? उसके बारे में हम वही सुनना पसन्द करेंगे जो ब्रेख्त अपनी कविता के बारे में सुनना चाहते थे - "तुम्हारे पंजे देख कर / डरते हैं बुरे आदमी / तुम्हारा सौष्ठव देख कर / खुश होते हैं अच्छे आदमी / यही मैं सुनना चाहता हूं / अपनी कविता के बारे में ।" (ब्रेख्त की कविता "एक चीनी शेर की नक्काशी देखकर" की पंक्तियां) ।
जीवन में कविता की जरूरत किसी मांग और आपूर्ति के अर्थशास्त्रीय सिद्धान्त से तय नहीं होती । एक कवि को कविता तब लिखनी चाहिए जब उसे लगे कि यह काम सांस लेने जितना जरूरी है । "समकालीन कविता कोई स्वायत्त घटना नहीं , उसे हमारे समय में उपस्थित सामाजिक और राजनीतिक दृश्य की सापेक्षता में ही देखा जा सकता है ।"(आलोचना - अप्रैल-जून २००३ , किसी भी समाज में आलोचना स्वायत्त घटना नहीं होती - कुमार अम्बुज) । कविता की समस्याएं जीवन जगत की समस्याओं से अलग नहीं । यह साहित्य के लिए सर्वथा नई स्थिति है कि कविता के क्षेत्र में ढेरों पुरस्कार सम्मान , ढेरों कवियों की उपस्थिति के बावजूद , कविता हाशिए पर पड़ी है ।
साहित्य के क्षेत्र में प्रदत्त पुरस्कारों तथा सम्मानों का एक आंकड़ा जुटाएं तो सम्भवत: इनमें सबसे बड़ा हिस्सा कविता का ही बनेगा । किताबें भी सम्भवत: सबसे ज्यादा कविता की ही छपती हैं । बिना कविताओं के उद्धरण के कोई बात पूरी नहीं होती । फ़िर भी रोना धोना चलता है कि कविता की किताबें तो बिकती ही नहीं । हिन्दी का कवि कितना दयनीय है इसका अन्दाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि पुस्तक की रॉयल्टी तो दूर , उल्टे (किताब छपवाने के लिए) प्रकाशक कवि से ही खर्च वहन करने की बात करता है । छोटे बड़े और मंझोले , सरे कवि इस हकीकत को जानते हैं पर बोलता कोई नहीं । किताबें छप भी जाएं तो थोक सरकारी खरीद के दलदल में डूब जाती हैं । कीमत इतनी ज्यादा कि साधारण आदमी चाहे भी तो खरीद नहीं सकता । पाठक तो दूर , खुद कवि को अपनी किताब प्रकाशक से मूल्य चुका कर खरीदनी पड़ती है । हिन्दी के किसी बड़े या छोटे लेखक संगठन ने इस बाबत कोई आवाज उठाई हो ऐसा कोई वाकया याद नहीं आता । लघु पत्रिकाओं में कविता के पन्ने भरती के लिए रखे जाने लगे । लघु पत्रिकाएं कलेवर में मोटी होने लगीं । इन्हें सरकारी विग्यापन और बड़े वित्तीय संस्थानों से सहायता मिलने लगी । सफ़ल कवि सोशल नेटवर्किंग के मकड़जाल में फ़ंसी मक्खी बन कर रह गए हैं । समकालीन कविता के लिए यह स्थिति सुखकर तो नहीं है । सचमुच यह चिन्ता का विषय है कि ऐसे समय में अपने कवि होने पर गर्वबोध होना चाहिए या शर्मसार होना चाहिए । ये काव्य पंक्तियां इस सन्दर्भ में देखी जा सकती हैं - "एक ऐसे समय में / शब्दों को बचाने की लड़ रहा हूं लड़ाई / यह शर्म की बात है कि मैं लिखता हूं कविताएं / यह गर्व की बात है कि ऐसे खतरनाक समय में कवि हूं" ( कविता से लम्बी उदासी - विमलेश त्रिपाठी ) । हिन्दी का कवि ज्यादा लम्बे समय तक इस लड़ाई में टिका नहीं रह पाता । यह अकारण नहीं कि हिन्दी के कई समर्थ कवि अब सफ़ल कथाकार बन चुके हैं । उदय प्रकाश से लेकर संजय कुन्दन तक इनकी लम्बी फ़ेहरिस्त है ।
इधर समकालीन हिन्दी कविता के दो कोटि के आलोचक मोटे तौर पर परिदृश्य में देखे जा सकते हैं । एक वे हैं जिन्हें सावन के अन्धे की तरह कविता का क्षेत्र सदा हरा भरा दिखता है । अन्धे के हाथी देखने की तरह ये कविता को अपनी तरह से देखते और समझते हैं । दूसरे वे जिन्हें कविता की मृत्यु की घोषणाएं करते ही सुख मिलता है । इन्हें लगता है कि निराला और मुक्तिबोध जैसे युगान्तकारी कवि हर दस पांच साल मेम एक-दो तो आना ही चाहिए । ये दोनों विचारक सम्यक दृष्टि के अभाव में कविता पर फ़तवे देते रहते हैं । इनके पास अपने प्रिय कवियों की सूची होती है जिसके बाहर के कविता संसार को ये खारिज ही कर देते हैं । हिन्दी के कुछ महत्वपूर्ण कवियों - आलोचकों से पूछा गया कि अपने दस प्रिय कवियों के नाम बताएं और यह भी कि किस समकालीन कवि के मूल्यांकन में अन्याय हुआ है , तो अधिकांश ने नाम लेने से ही मना कर दिया ( समकालीन सृजन - कविता इस समय अंक २००६) । एक को प्रिय कहेंगे तो तो दूसरे को अप्रिय बनाने का संकट है । इसी तरह यदि कहें कि अमुक के साथ अन्याय हुआ है , तो आरोप सीधे आलोचना - पीढ़ी पर जाता है । निरापद यही है कि चतुराई से सवाल की दिशा ही बदल दी जाए । इसे कायरता कहें या चतुराई , साहित्य के लिए यह एक भ्रामक स्थिति है जहां आप खुल कर अपनी पसन्द या नापसन्द भी जाहिर नहीं कर सकते । स्मरण रहे कि "जो आलोचक कविता में अर्थवान शब्द की समस्त सम्भावनाओं की खोज किए बिना ही एक सामान्य वक्तव्य या संदेश के आधार पर किसी कविता पर मूल्य- निर्णय देने का दावा करता है , वह कविता का आलोचक नहीं है , न होगा । इसके मूल में कविता के स्वकीयता , स्वायत्तता और सापेक्ष -स्वतन्त्रता तथा इंटिग्रिटी से जुड़े मूल्य हैं । यह मान्यता कविता के तथाकथित सभी नए प्रतिमानों की आधारशिला है "(कविता के नए प्रतिमान - नामवर सिंह) । हिन्दी में दर असल आलोचना का मूल चरित्र ही नकारात्मक है । आलोचना को बृहत्तर अर्थों में रचना से संवाद करना चाहिए , तभी रचना का सही मूल्यांकन हो सकेगा ।
अच्छी कविताएं कई बार जीवन के लिए "ऑक्सीजन" का काम भी करती हैं । जीवन के भीतरी दबावों के लिए कविता एक "सेफ़्टी वाल्व" भी है । हरिवंश राय "बच्चन" की "नीड़ का निर्माण फ़िर फ़िर नेह का आह्वान फ़िर फ़िर.." कविता आज भी जीवन में हार की कगार पर खड़े आदमी को पुन: जीवन की ओर मोड़ देती है । ग़ालिब का शेरो-सुखन "होता है शबो रोज तमाशा मेरे आगे.." हाले-वक्त की तस्वीर आज भी पूरी सिद्दत के साथ पेश करता है । मुक्तिबोध की काव्य पंक्तियां " हमारी हार का बदला चुकाने आएगा / संकल्प धर्मा चेतना का रक्त प्लावित स्वर / हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर / प्रकट हो कर विकट हो जाएगा.." आज भी परिवर्तनकामी आंखों में सपने की तरह जगमगाती हैं । "सारा लोहा उन लोगों का अपनी केवल धार.." कहते हुए अरुण कमल अपने लोगों के बीच भरोसे के कवि बनते हैं । ऐसे टुकड़ों की लम्बी सूची बनाई जा सकती है ।
कहते हैं "राग रसोइया पागरी कभी कभी बन जाय." - अच्छी कविताएं भी बन जाया करती हैं । कभी -कभी अच्छी कविताएं बनाने की कोशिश में कवि अतिरंजित बातें करते हुए अविश्वसनीय और हास्यास्पद लगने लगता है । अरुण कमल की स्थूल पैरोडी करते हुए अष्टभुजा शुक्ल कहते हैं , "सारा लोहा अष्टभुजा का अष्टभुजा की धार" , तो वे असहज ही दिखते हैं । भरोसे का कवि अपने "लोक" के प्रति कृतग्यता बोध से भरा हो यह उसके लिए विश्वसनीयता की पहली शर्त है । निरन्तर काव्याभ्यास , लोक-सम्पृक्ति , गहन जुवनानुभव (मुक्तिबोध के "ग्यानत्मक संवेदन" और "संवेदनात्मक ग्यान" का स्मरण कर लें) के द्वारा अच्छी अर्थात बड़ी कविताओं तक पहुंचने का एक रास्ता बनता है । काव्याभ्यास केदारनाथ सिंह से लेकर कविता की नवीनतम पीड़ी तक देखा जा सकता है । भक्ति के किस क्षण में भक्त अपने आराध्य को पा लेगा , कहना कठिन है । वैसे ही , काव्याभ्यास के किस मुहूर्त में बड़ी कविता लिखी जाएगी , बताना बहुत कठिन है ।
जीवन में कविता का हस्तक्षेप जितना अधिक होगा मनुष्य का जीवन नीरस गद्य होने से उतना ही बचा रहेगा । कविता यदि वर्तमान में नक्कारखाने की तूती है तो भी उसे बोलते रहना चाहिए । कविता को अपनी नैतिक जिम्मेदारियों को भी समझना होगा । नागार्जुन जब कहते हैं कि "नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है / यह विशाल भूखण्ड आज जो दमक रहा है / मेरी भी आभा है इसमें " तब वे पूरे कवि समाज की तरफ़ से ही बोलते हैं । यह बोलना महज हाजिरी लगाना नहीं है बल्कि यह अपने समय और लोक जगत के साथ संगत और सहभागिता है । कवि भी हाड़ मांस का बना प्राणी होता है । वह सुदूर किसी भिन्न ग्रह से आया अतिमानवीय जीव नहीं । वह इतना ही कर सकता है कि उसकी संगत और सहभागिता अधिकाधिक ईमानदार हो , उसमें कोई खोट न हो । इसके बाद वह भी निरुपाय हो जाता है ।
विद्रोही चेतना की कवि कात्यायनी कविता को "एक बेहद मामूली रोजमर्रे के जरूरी सामान" के रूप में देखती हैं -"जैसे कि बागवानी के लिए खुरपी , सफ़ाई के लिए झाड़ू , खाने के लिए थाली , आँसू पोंछने के लिए रुमाल" (देखें "फ़ुटपाथ पर कुर्सी" - कात्यायनी का कविता संग्रह) । कविता को एक तरफ़ रोजमर्रे की जरूरी चीज की तरह देखने वाला कवि तब सन्दिग्ध हो उठता है जब वह "दुकान में सब्जी के लिए मोल भाव करते , बच्चे की स्कूल की फ़ीस भरते , दफ़्तरों में पैरवी करते" कवि को दयनीय दृष्टि से देखता है । स्वयं कवि के लिए क्या इस तरह का मुगालता वाजिब हो सकता है कि वह हर वक्त मोर्चे पर डटा , कमान संभालता कोई सिपाही है । कवि से यह अपेक्षा क्या उचित है ? उसे भी आप अपने बीच का आदमी क्यों नहीं मान सकते । इस सन्दर्भ में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता से ये पंक्तियाँ जरूर देखी जानी चाहिए :
"मुझे एक चाकू दो
मैं अपनी रगें काट कर दिखा सकता हूँ
कि कविता कहाँ है
शेष सब पत्त्थर हैं
मरी कलम की नोंक पर ठहरे हुए
लो, मैं उन्हें तुम सब पर फ़ेंकता हूँ
तुम्हारे साथ मिल कर हर उस चीज पर फ़ेंकता हूँ
जो हमारी तुम्हारी
विवशता का मजाक उड़ाती है
मैं जानता हूँ पथराव से कुछ नहीं होगा
न कविता से ही
कुछ हो या न हो
हमें अपना होना प्रमाणित करना है" ।
सचमुच कविता लिखना अपने आप को प्रमाणित करना ही है । इस अर्थ में कविता किसी भी समय में सबसे बड़े प्रतिपक्ष की भूमिका में होती है । पत्थर उछालने की बात हिन्दी के प्रामाणिक ग़ज़लकार दुष्यन्त कुमार भी करते हैं (कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता / कोई पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो - "साए में धूप" संग्रह से) लेकिन दुष्यन्त कुमार के यहाँ यह सामर्थ्य बन कर आता है तो सर्वेश्वर के यहाँ सीमा बनकर । कविता के सामर्थ्य और उसकी सीमा दोनों को ध्यान में रखना बेहद जरूरी है । कविता अपने आप में रामायण गीता की तरह कोई पवित्र चीज नहीं और न ही यह कोई जटिल शास्त्र है । इसलिए इसको लेकर बहुत भावुक होने की भी जरूरत नहीं होनी चाहिए ।यहाँ कवि आखिरकार कुछ हासिल करने नहीं आता । वह अपना ही बहुत कुछ लुटा जाता है - कभी घर फ़ूँक कर तो कभी घर को बचाते हुए । यह कवि का अपना चुनाव है कि वह कबीर की आवाज सुनता है या नहीं । इसलिए उसे न तो नायक के रूप में देखे जाने की जरूरत है न ही प्रतिनायक के रूप में ।
"सुकवि की मुश्किल" कविता में रघुवीर सहाय भी इशारा करते हैं( "किसी ने उनसे कहा नहीं था कि आइए आप काव्य रचिए") कि कवि कर्म मूलत: एक स्वत:स्फ़ूर्त क्रिया है । काशी तट पर गंगा में सीने भर गहराई में खड़े होकर जैसे कोई आस्तिक अपनी अँजुरी में गंगाजल भर कर गंगा को नमन करता है , समाज में वैसे ही लोक जीवन में आकण्ठ डूबा कवि अँजुरी में जीवन के अनुभवों को संजो कर अपने ही लोक को लौटा देता है , कविता रूप में । कहते भी हैं कि त्वदीयं वस्तु गोविन्दं तुभ्यमेव स्मर्पयामि । कबीर कहते हैं - तेरा तुझको सौंपता क्या लागे है मेरा । शमशेर बहादुर सिंह के शब्दों में :"कवि घंघोल देता है / व्यक्तियों के जल / हिला मिला देता है / कई दर्पनों के जल / जिसका दर्शन हमें शान्त कर देता है / और गम्भीर / अन्त में"( "कवि घंघोल देता है" - शमशेर की एक छोटी सी कविता ) । इस तरह कविता हमें अपने भीतर की गहराइयों में उतरने का अवसर देती है । यह एक तरह का आत्म साक्षात्कार भी है । लेकिन कविता से जुड़ा गम्भीर प्रश्न यह है कि कविता उनके कितने काम आती है जिनसे वह मुखातिब है । दूसरे शब्दों में वह कितनी जरूरी चीज है । इसका जवाब हम कवि त्रिलोचन की इन पंक्तियों में खोज सकते हैं :
"उस जनपद का कवि हूँ जो भूखा दूखा है / नंगा है अनजान है कला नहीं जानता / कैसी होती है क्या है वह नहीं मानता / कविता कुछ भी दे सकती है " ("उस जनपद का कवि हूँ" कविता से ) । कविता के आलोचक यह कहते रहे हैं कि यह विशिष्ट जनों की चीज है । त्रिलोचन भी इसी बात का समर्थन करते हैं कि कविता का भूखा दूखा जनपद यह नहीं मानता कि कविता कुछ भी दे सकती है । लेकिन कविता क्या दे सकती है इस बहस से पहले हमें यह तय कर लेना होगा कि कविता से हमारी अपेक्षाएँ क्या हैं । कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता की आकांक्षा यही है कि वह अपने लोक के बीच ही अपनी पहचान बनाए । कवि के शब्द हैं - "मोर नाम एइ बोले ख्यात होक / आमि तोमादेरि लोक" (भानुवाद : इस तरह जाना जाऊँ मैं / कि हूँ तुम्हारे ही बीच का आदमी) । ऐसे में कविता की पक्षधरता को लेकर बहस करने की आवश्यकता नहीं रह जाती ।
कविता का लोक जरूरी नहीं कि गांवों और खेत खलिहानों में ही रहता हो । वह कस्बों , छोटे शहरों तथा महानगरों में भी हो सकता है । सामयिक रूप से कविता भले ही लोक विमुख दिखे अन्तत: उसे अपने लोक तक लौटना ही पड़ता है । कतिपय सुकवि महाकवि नकली संवेदना के वाग्जाल बुन कर ग्लोबल होने की चाहे जितनी कवायद क्यों न कर लें कविता-समय उन्हें अपने सूप-चलनी में छाँट फ़टक कर वैसे ही अलग कर देगा जैसे अनाज से कंकड़ और पत्थर अलगा दिए जाते हैं । बिना स्थानीय संवेदना से जुड़े कविता कुछ शब्दों का चमत्कार भर रह जाएगी ।
मुनासिब है कि यहाँ ठहर कर मैं अपने प्रिय कवियों के नाम लूँ । तो पहली कविता के सर्जक वाल्मीकि के बाद मेरे बहुत प्रिय कवियों की सूची में मैं अमीर खुसरो , ग़ालिब , कबीर , निराला , बच्चन , मुक्तिबोध , नागार्जुन , त्रिलोचन , सर्वेश्वर दयाल , वीरेन डंगवाल , ग्यानेन्द्रपति , राजेश जोशी , एकान्त श्रीवास्तव , हेमन्त कुकरेती , निलय उपाध्याय , बोधिसत्व , प्रेमरंजन अनिमेष , अशोक सिंह(दुमका) और कात्यायनी को सबसे ऊपर रखे जाने का आग्रही हूँ । मध्य क्रम और उसके बाद की सूची को यहाँ अप्रासंगिक मान कर बाद के लिए छोड़ा जा सकता है । कविता के अन्त की घोषणाएँ करने वालों की राह में निराला के ये शब्द रोड़ों की तरह रोकेंगे और बार बार यही दोहरायेंगे कि , "अभी न होगा मेरा अन्त / अभी अभी ही तो आया है मेरे मन में मृदुल बसन्त" ।
acha laga...app ki baat sach hai...
ReplyDeleteyahan prshn sirf kavi ke bhramit hone ka nhi hai balki khemo me bati rajniti ka hai.. ye dukhad hai ki sahity me bhi aisi rajniti hai.. aur alochak bhi isse achhoote nhi hain.. vaise mai aapke lekh me uthhaye gaye muddo se sahmat hoon.
ReplyDeleteकविता जो ,अपने वर्तमान का हाथ थाम कर चलना चाहती है ,कभी आगे भागती है तो कभी पीछे लौटती है ,चोट खाती ,रुक कर सहलाती और फिर कोशिश करती है तो इस लिए कि वह किसी पराये वक़्त में ,पराये टुकड़ों पर जीना नहीं चाहती ! वह वर्त्तमान की रही है और वर्त्तमान की ही रहेगी ! कविता का सारा संघर्ष अपने समय से जुड़ने ,उससे संदर्भित होने ,उससे अपनी पहचान पाने का संघर्ष है ! कविता की सच्ची पहचान वही है जो मनुष्य को अपने वर्त्तमान से जोड़ने और स्वयं अपनी पहचान बनाने में सहायक हो ! आखिर कविता मनुष्यता की मातृभाषा है !
ReplyDelete'कविता-कविता' पर कविता के विषय में प्रस्तुत लेख बड़े विस्तार से कविता और कविता समय को ,उसके औचित्य को ,उसके संघर्ष को दृढ आशा और विश्वास की अनुरागमयी जीवंत कसौटी पर परखने और उसके अस्तित्व पर छाये घटाटोप को छिन्न-भिन्न करने का सफल और सुन्दर प्रयास है !
आपने टिप्पणी छोटी लिखी किंतु सवाल बड़े उठाये हैं। मुर्दा हिन्दी आलोचना का मर्सिया दुहराने से अच्छा यही है कि रचनाकार स्वयं अपनी बात कहे और अपने पाठकीय अनुभवों को आलोचना-कर्म से जोड़कर अपने सर्वथा अपेक्षित ऐतिहासिक दायित्वों का निर्वहन करे। अपने समय के रचना-प्रयासों को विश्लेषित करने का कार्य अपेक्षाकृत सटीक और विश्वसनीय ढंग से रचनाकार ही कर सकता है, मुझे तो यही लगता है। मुक्तिबोध इसके जीवंत उदाहरण हैं। वैसे, हम हिन्दी आलोचना के जिन गैरजिम्मेदाराना रवैयों की बातें लगातार कहते-सुनते चल रहे हैं, मैनेजर पांडेय की टिप्पणी उसी का ताज़ा सुबूत है... उनका यह कथन सचमुच स्तबधकारी और किसी हद तक रोष से भर देने वाला है- '' समकालीन कवियों पर लिखने के लिये कोई इसलिए भी तैयार नहीं है कि जरा सा सच बोल देने पर ये लोग बुरा मान जाते हैं"। सवाल है कि अपना दायित्व-कर्म पूरा करते हुए आलोचक का ध्यान रचना-फलक पर केन्द्रित होना चाहिए या इस गणना-गणित पर कि कौन उसके विचारों को कैसे ग्रहण करेगा?
ReplyDeleteइधर समकालीन हिन्दी कविता के दो कोटि के आलोचक मोटे तौर पर परिदृश्य में देखे जा सकते हैं । एक वे हैं जिन्हें सावन के अन्धे की तरह कविता का क्षेत्र सदा हरा भरा दिखता है । अन्धे के हाथी देखने की तरह ये कविता को अपनी तरह से देखते और समझते हैं । दूसरे वे जिन्हें कविता की मृत्यु की घोषणाएं करते ही सुख मिलता है । इन्हें लगता है कि निराला और मुक्तिबोध जैसे युगान्तकारी कवि हर दस पांच साल मेम एक-दो तो आना ही चाहिए । ये दोनों विचारक सम्यक दृष्टि के अभाव में कविता पर फ़तवे देते रहते हैं । इनके पास अपने प्रिय कवियों की सूची होती है जिसके बाहर के कविता संसार को ये खारिज ही कर देते हैं । हिन्दी के कुछ महत्वपूर्ण कवियों - आलोचकों से पूछा गया कि अपने दस प्रिय कवियों के नाम बताएं और यह भी कि किस समकालीन कवि के मूल्यांकन में अन्याय हुआ है , तो अधिकांश ने नाम लेने से ही मना कर दिया ( समकालीन सृजन - कविता इस समय अंक २००६) । एक को प्रिय कहेंगे तो तो दूसरे को अप्रिय बनाने का संकट है । इसी तरह यदि कहें कि अमुक के साथ अन्याय हुआ है , तो आरोप सीधे आलोचना - पीढ़ी पर जाता है । निरापद यही है कि चतुराई से सवाल की दिशा ही बदल दी जाए । इसे कायरता कहें या चतुराई , साहित्य के लिए यह एक भ्रामक स्थिति है जहां आप खुल कर अपनी पसन्द या नापसन्द भी जाहिर नहीं कर सकते । स्मरण रहे कि "जो आलोचक कविता में अर्थवान शब्द की समस्त सम्भावनाओं की खोज किए बिना ही एक सामान्य वक्तव्य या संदेश के आधार पर किसी कविता पर मूल्य- निर्णय देने का दावा करता है , वह कविता का आलोचक नहीं है , न होगा । इसके मूल में कविता के स्वकीयता , स्वायत्तता और सापेक्ष -स्वतन्त्रता तथा इंटिग्रिटी से जुड़े मूल्य हैं । यह मान्यता कविता के तथाकथित सभी नए प्रतिमानों की आधारशिला है "(कविता के नए प्रतिमान - नामवर सिंह) । हिन्दी में दर असल आलोचना का मूल चरित्र ही नकारात्मक है । आलोचना को बृहत्तर अर्थों में रचना से संवाद करना चाहिए , तभी रचना का सही मूल्यांकन हो सकेगा ।
ReplyDeleteकवि,कविता आलोचना की दशा और दिशा पर एक बहुत ही गंभीर और चिंतनपरक आलेख साझा करने के लिए आभार!
नील कमल जी,
ReplyDeleteनमस्कार,
आपके ब्लॉग को "सिटी जलालाबाद डाट ब्लॉगसपाट डाट काम" के "हिंदी ब्लॉग लिस्ट पेज" पर लिंक किया जा रहा है|