Saturday, October 1, 2011

कविता -7 : निलय उपाध्याय की कविता "मैं गाँव से जा रहा हूँ"





निलय उपाध्याय समकालीन कविता में अपनी सच्ची अनुभूतियों के लिए अलग से पहचाने जा सकते है । "मैं गाँव से जा रहा हूँ" कविता में कवि का गाँव से जाना किस तरह से पराजय में बदल जाता है यह चिन्ता किसी अकेले आदमी की चिन्ता नहीं है बल्कि आदम जात की चिन्ता भी है । यह जाना अपने पीछे दूर तक असर छोड़ती एक दर्द की आहट भी है । जाना जैसे सदा के लिए जाना हो कि फ़िर लौट कर आना हो न हो । यह प्रस्थान श्मशान से चिता को ठंडा होता छोड़ कर जाते उस आदमी का जाना है जो अपने स्वजन खो चुका है । उसके पीछे एक लुटी हुई दुनिया की वीरानगी है । जाता हुआ आदमी यह भी स्वीकार कर रहा है कि वह एक युद्ध हार चुका है और अपने विजेता से पनाह माँगने जा रहा है । तो प्रश्न यह भी है कि वह विजेता आखिर कौन है । क्या यह युद्ध गाँव और शहर का है ? कविता में खामोशी में फ़ैली पुरखों की हाँक भी है जिन्हें जाने वाले की पराजय की सूचना मिल चुकी है और वे जाहिर तौर पर इससे दुखी भी हैं । पूरी कविता में जो बात रेखांकित करने लायक है वह यह कि युद्ध के बाद का पराजय एक स्वाभाविक परिणाम की तरह आता है । अर्थात यह पलायन नहीं है । कविता का पराजित नायक अपने विजेता के पास भी इस विश्वास के साथ जाता हुआ दिखता है कि जैसे वह पनाह पा ही जाएगा । यह उसी तरह का विश्वास है जो सिकन्दर से पराजित पोरस में दिखता है । लेकिन एक बात स्पष्ट है कि यह पराजय कविता के प्रथम पुरुष को स्वीकार्य नहीं है । वह एक मद्धिम सी चेतावनी भी अपने पीछे छोड़ता हुआ जाता है कि उसका जाना याद रखा जाये । कविता में यह गाँव से जाना गाँव को अपने साथ लिए चलना भी है तो खुद को गाँव में ही छोड़ते हुए जाना भी है । यह बात कविता के सौन्दर्य को एक ऊँचाई देती है और कवि को भी ।

मैं गाँव से जा रहा हूँ
(निलय उपाध्याय की एक कविता)

 मैं गाँव से जा रहा हूँ
कुछ चीज़ें लेकर जा रहा हूँ
कुछ चीज़ें छोड़कर जा रहा हूँ
मैं गाँव से जा रहा हूँ
किसी सूतक का वस्त्र पहने
पाँच पोर की लग्गी काँख में दबाए
मैं गाँव से जा रहा हूँ
अपना युद्ध हार चुका हूँ मैं
विजेता से पनाह माँगने जा रहा हूँ
मैं गाँव से जा रहा हूँ
खेत चुप हैं
हवा ख़ामोश, धरती से आसमान तक
तना है मौन, मौन के भीतर हाँक लगा रहे हैं
मेरे पुरखे... मेरे पित्तर, उन्हें मिल गई है
मेरी पराजय, मेरे जाने की ख़बर
मुझे याद रखना
मैं गाँव से जा रहा हूँ

2 comments:

  1. शक्ति केन्द्रो के विस्थापन पर अच्छी टिप्पडी..बहुत अच्छा लिखा हॆ आपने..मेरी कविता हॆ इसलिए ज्यादा नही लिखूंगा..पर चॊका दिया नील कमल जी आपने।

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  2. अच्छी है.पलायन इस समय देश की सबसे बड़ी सच्चाई है. हमारे गाँव जहाँ कभी फसलें झूमती थीं,प्रकृति खुशी के गीत गाती थी, किसान को गुमान होता था कि वह मनुष्य से लेकर पशु-पक्षी तक के पेट भरता है. मगर पिछले दो दशकों से गाँव की स्थिति बिल्कुल विपरीत हो चली है, किसान खेती से टूट गए हैं.वह अपने बेटे को खेत बेचकर भी पढ़ा रहा है, ताकि बेटे का गाँव से, फटेहाली से पीछा छूटे.मगर वह खुश नहीं है.किसको अच्छा लगता है जड से अलग होना!मगर क्या करे?जिस शहर को वह बोरियाँ के बोरियाँ अनाज भेजा करता था, उसी शहर से आने वाले मनीऑर्डर का इंतज़ार रहता है उसे कि बेटे द्वारा गया पैसा आए और वह बाज़ार से अनाज खरीदे. ओह कितनी बड़ी ट्रेजिडी है इस देश के किसान के साथ!यह कविता उसी ट्रेजिडी को समेटे हुए अपने आप में. पलायन कर रहे उस किसान की पीड़ा एक-एक शब्द में महसूस की जा सकती है...

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