कविता : रायपुर बिलासपुर संभाग (विनोद कुमार शुक्ल)
रायपुर बिलासपुर संभाग
हाय ! महाकौशल , छत्तीसगढ़ या भारतवर्ष
इसी में नांदगांव मेरा घर
कितना कम पहुंचता हूं जहां
इतना जिंदा हूं
सोचकर खुश हो गया कि
पहुंचूंगा बार-बार
आखिरी बार बहुत बूढ़ा होकर
खूब घूमता जहां था
फ़लांगता छुटपन
बचपन भर
फ़लांगता उतने वर्ष
उतने वर्ष तक
उम्र के इस हिस्से पर धीरे-धीरे
छोटे-छोटे कदम रखते
जिन्दगी की इतनी दूरी तक पैदल
कि दूर उतना है नांदगांव कितना अपना ।
स्टेशन पर भीड़
गाड़ी खड़ी हुई
झुण्ड देहाती पच्चासों का रेला
आदमी औरत लड़के लड़की
गंदे सब नंगे ज्यादातर
कुछ बच्चे रोते बड़ी जोर से
बाकी भी रुआंसे सहमे
जुड़े-सटे एक दूसर से इकट्ठे
कूड़े-कर्कट की गृहस्थी का सामान लाद
मोटरा पोटली ढिबरी कंदिल
लकड़ी का छोटा सा गट्ठा
एक टोकनी में बासी की बटकी हंडी
दूसरी में छोटा सा बच्चा
छोटी सुंदर नाक , मुंह छोटा सा प्यारा
बहुत गहरी नींद उसकी
भविष्य के गर्भ में उल्टा पड़ा हुआ
बहुत गरीब बच्चा
वर्तमान में पैदा हुआ ।
भोलापन बहुत नासमझी !! पच्चासों घुसने को एक साथ एक ही डिब्बे में
लपकते वही फ़िर एक साथ दूसरे डब्बे में
एक भी छूट गया अगर
गाड़ी में चढ़ने से
तो उतर जाएंगे सब के सब ।
डर उससे भी ज्यादा है
अलग अलग बैठने की बिलकुल नहीं हिम्मत
घुस जाएंगे डिब्बों में
खाली होगी बेंच
यदि पूरा डिब्बा तब भी
खड़े रहेंगे चिपके कोनों में
य उखरू बैठ जाएंगे
थककर नीचे
डिब्बे की जमीन पर ।
निष्पृह उदास निष्कपट इतने
कि गिर जाएगा उनपर केले का छिलका
या फ़ल्ली का कचरा
तब और सरक जाएंगे
वहीं कहीं
जैसे जगह दे रहे हों
कचरा फ़ेंकने को अपने ही बीच ।
कुछ लोगों को छोड़
बहुतों ने देखा होगा
पहली बार आज
रायपुर इतना बड़ा शहर
आज पहली बार रेलगाड़ी , रोड रोलर , बिजली नल ।
छोड़ कर अपना गांव
जाने को असम का चाय बगान , आजमगढ़
कलकता , कर्नाल , चण्डीगढ़
लगेगा कैसा उनको , कलकत्ता महानगर !! याद आने की होगी
बहुत थोड़ी सीमा
चन्द्रमा को देखेंगे वहां
तो याद आएगा शायद
गांव के छानी छप्पर का सफ़ेद रखिया
आकाश की लाली से
लाल भाजी की बाड़ी
नहीं होगी जमीन
जहां जरी खेड़ा भाजी ।
आंगन में करेले का घना मंडप
जिसमें कोई न कोई हरा करेला
छुप कर हरी पत्तियों के बीच
टूटने से छूट जाता
दिखलायी देता
जब पक कर बहुत लाल हो जाता
देखेंगे जब पहली बार सुबह शाम का सूरज
छूट कर रह गया वहां दिन
छूटकर सुबह शाम का सूरज ।
दूर हो जाएगी गंवई , याद आने की अधिकतम सीमा से भी
क्षितिज के घेरे से मजबूत और बड़ा
कलकत्ते का है घेरा ।
कि अपनी ही मजबूरी की मजदूरी का
गरीबी अपने में एक बड़ा घेरा ।
नहीं नहीं मैं नहीं पहुंच सकूंगा नांदगांव
मरकर भी न जिन्दा रह
टिकट कर दूं वापस
चला जाऊं तेज भागते
गिरते पड़ते हांफ़ते
देखूं झोपड़ी एक-एक
कितनी खाली
क्या था पहले
क्या है बाकी ।
छूट गई होगी धोके से
साबुत कोई हंडी
पर छोड़ दिया गया होगा दुख से
पैरा तिनका एक अरहर काड़ी एक-एक ।
समय गुजर जाता है
जैसे सरकारी वसूली के लिए साहब दौरे पर ।
फ़िलहाल सूखा है
इसलिए वसूली स्थगित
पिटते हुए आदमी के बेहोश होने पर
जैसे पीटना स्थगित ।
देखना एक जिन्द उड़ती चिड़िया भी
ऊंची खिड़की से फेंक दिया किसी ने
मरी हुई चिड़िया का भ्रम
कचरे की टोकरी से फेंका हुआ मरा वातावरण
मर गया एक बैल जोड़ी की तरह
एक मुश्त रायपुर और बिलासपुर
इसे महाकौशल कहूं या छत्तीसगढ़ !! मर गया प्रदेश
मर गई जगह पड़ी हुई उसी जगह
उत्तर प्रदेश राजस्थान
बिहार कर्नाटक आंध्र
बिखर गई बैलों की अस्थिपंजर सी सब जमीन उत्तर से दक्षिण
जमीन के अनुपात से
आकाश को गिद्ध कहूं
इतना भी नहीं काफी
जितना अकेला एक गौंठिया काफी
फिर मरे हुए दिन की परछाएं रात अंधेरी ।
शब्द खेत शब्द पत्थर
मेड़ के नीचे धंसे पत्थर
बल्कि चट्टानें
फॉसिल हुई फसलें ।
दृश्य तालाब का
गड्ढे का दृश्य साफ है ।
तालाब का पंजर ।
पपड़ाया हुआ मन तालाब का भीतेरी ।
जिसमें सूखी हरी काई की परत
सूख गया हरा विचार तालाब का ।
पार के ऊपर जाकर
मंदिर के पास खड़ा
किसी पेड़ का जैसे पुराना बरगद ।
पेड़ का नीम सूखा
"था एक पेड़" की कहानी की शुरुआत ।
लकड़ी के पेड़ के बबूल पीपल
लकड़ी की अमराई ।
एक गईब खेतिहर के बेदखल होते ही
छूटकर रह गई जमीन
जमीन का नक्शा होकर
टंग गई जमीन दीवाल पर
्कि हिमालय एक निशान हिमालय का नक्शे में
नदियां बड़ी बड़ी बस चिन्ह नदियों के
पुल रेलगाड़ी की पटरी सड़क
और निशान समुद्रों के
नक्शा पूरा टंगा हुआ देश का दीवाल पर
कहां नांदगांव उसमें मेरा घर ।
बहुत मुश्किल ढूंढ़ने में
पार्री नाला नदी मुहारा
रास्ता पगडंडी का
घर आंगन एक पेड़ मुनगे का
अजिया ने जिसे लगाया था
दो पेड़ जाम के
बापजी बड़े भैया के और चाचा की छाया
अम्मा से तो एक एक ईंट घर की
और चूल्हे की आगी
बहुत थक कर एक कोने मेम पड़ जाती
बहुत मुश्किल इन सबका उल्लेख नक्शे में ।
नहीं कोई चिन्ह
तालाबों में खिले हुए कमल का
तैरती छोटी-छोटी मछली
झींगा सिंगी बामी कातल
कूदते नंग धड़ंग छोटे बड़े घांव के लड़कों का
तकनीकी तौर पर भी मुश्किल
यह सब नक्शे में
जब गांव बहुत से और छोटे-छोटे हों
गरीब करोड़ों और रईस थोड़े हों
जब तक न वहां बड़े कल-कारखाने
या बांध ऊंचे हों ।
बिना जाते हुए प्लेटफार्म पर खड़े-खड़े
जब याद आते हैं नादगांव पहुंचने के
छोटे-छोटे से देहाती स्टेशन
इधर से रसमड़ा मुड़ीपार परमालकसा
उधर से मुसरा बांकल
तब लगता है मैं कहीं नहीं
बस निकाल दिया गया दूर कहीं बाहर सीमा से
निहारेते नक्शे को नक्शे के बाहर खड़े खड़े
लिए हाथों में एक झोला
एक छोटी पेटी का अपना वजन ।
फिर थक कर बैठ जाता हूं पेटी के ऊपर
और इस तरह खड़े-खड़े थकने से पछताता हूं
कि तालाब की सूखी गहराई के बीच
मैं भी तालाब का कोई छोटा सा जीवित विचार दिखूं
जिन्दगी में गीले मन से रिसता हुआ
पीपल की गहरी जड़ों को छूता
खेत के बीच कुंए के अंदर
झरने सा फूटूं ।
मेहनत के पसीने से भींग जाऊं ।
पलटकर वार करते हुए
बुरे समय के बाढ़ के पानी को
दीवाल सा रोकता
बांध का परिचय दूं
कि मैं क्या हूं आखिर
मेरी ताकत भी क्या है
बाढ़ को रोकने वाली दीवाल
छोटे से गांव के तालाब का छोटा सा विचार है ।
बिखर गए एक एक कमजोर को
इकट्ठा करता हुआ ताकत का परिचय दूं
कि मैं क्या हूं
मेरी ताकत भी क्या है
इकट्ठी ताकत तो एक-एक कमजोर का विचार है ।
गूंजी तब गाड़ी की तेज सीटी
कानों में हवा सांय गूंजी
अंधेरे अधर में लहर गई एक हरी बत्ती
किसी खूंखार जानवर की अकेली आंख अंधेरे में हरी चमकी
चलने को है अब हरहमेश की रेलगाड़ी
हड़बड़ा कर मैं पेटी से उठा
कि हाथ का झोला छिटक कर दूर जा पड़ा
गिर गया तिफिन का डिब्बा झोले से बाहर
लुढ़कता खुलता हुआ
रोटी और सूखी आलू की सब्जी को बिखराता
ढक्कन अलग दूर हुआ
अचानक तब इकट्ठे भूखे नंगे लड़कों में
होने लगी उसी की छीना झपटी
मेरी छाती में धक-धक
मेहनत के आगे भूख का खतरा हरहमेश
कांप गए पैर
अरे ! रोक दो मत जाने दो
मजबूर विस्थापित मजदूरों को
कहां गया लाल झंडा ! लाल बत्ती !! गाड़ी रोकने को
आ क्यों नहीं जाता सामने सूर्योदय लाल सिगनल सा
खींच दे उनमें से ही कोई जंजीर खतरे की
या पहुंचे कोई इंजन तक
कर ले कब्जा गाड़ी के आगे बढ़ने पर
पलटा दे दिशा गाड़ी की
कूदें सब खिड़की दरवाजे से डिब्बे की
लौटे लेकर फैसले का विचार लश्कर
छोड दें पीछे मोह कचरे की गृहस्थी का
टट्टा कमचिन बासी की बटकी हंडी भी
पर भूल न जाएं ढिबरी कंदिल
जरूरत अंधेरे में रस्ता ठीक से देखने की ।
एक गरीब जैसे हर जगह उपलब्ध आकाश पर
गोली का निशान गोल सूरज
रिसता रक्त पूरब कोई सुबह ।
उसी सुबह एक जिन्दा चिड़िया का हल्ला
देखने को टोलापारा उमड़ा
सुनाई देती है सीटी उस चिड़िया की
बुलबुल ही शायद दिखलाई नहीं देती
कहां है ? कहां है ?
एक ने कहा - मुझे दिखी
उसे घेरकर तुरन्त जमघट हुआ
चिड़िया बुलबुल दिखाने को
बच्चों को कंधे पर बैठाए लोग
इस तरह भविष्य तक ऊंचे लोग
सबकी इशारे पर एकटक नजर
उधर वहां !
"था एक पेड़" की कहानी का जहां खात्मा
नहीं चला होगा लम्बा किस्सा
समाप्त बीच में ही हुआ होगा
वहीं सुरक्षित पीपल का एक बीज अंकुर
"एक पेड़ है" कहानी की शुरुआत
उसी पेड़ पर
जिस पेड़ की फुनगी को सारे आकाश का निमंत्रण ।
हरा मुलायम
हरा ललछौंह चमकते
नए पत्तों के बीच
बस उसी पेड पर ।
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