Monday, July 30, 2012

कविता - 18 : अष्टभुजा शुक्ल की कविता "जवान होते बेटों !"


अष्टभुजा शुक्ल भाषा के ठेठ इलाके के कवि हैं । इनकी कविताओं में ठेठ भाषा का ठाट भी खूब दिखता है । जब अरुण कमल जैसा कवि कहता है कि "सारा लोहा उन लोगों का अपनी केवल धार" तब अष्टभुजा लिखते हैं कि "सारा लोहा अष्टभुजा का अष्टभुजा की धार" । अष्टभुजा शुक्ल की यह बानी एक जनपद के कवि की अक्खड़ बोली है । शुक्ल जी की जवान होते बेटों को संबोधित यह कविता पाठक पर अपना गहरा प्रभाव छोड़ती है । कविता में बिना लाग-लपेट के बातें करने वाला कवि पिता के रूप में कितना संतुलित है । कितनी गंभीर हैं इस पिता की हिदायतें । और हिदायत भी क्या खूब कि जवान होते बेटों के लिए यह तस्दीक भी है कि इन हिदायतों को न मानना तुम्हारा फ़र्ज़ है जब कि मौसम हिदायतें देने का है । यह महज रस्म-अदायगी नहीं है बल्कि यहां एक ऐसे पिता की चिन्ताएं हैं जो अपने बेटों को सिर्फ़ एक अच्छा आदमी देखना चाहता है (बड़ा आदमी नहीं) ।
कविता में पिता सीधे-सीधे बड़े-बड़े आशीर्वाद नहीं देता । इस पिता के मन में बेटों के लिए गाड़ी , बंगला , बैंक-बैलेंस वाले आशीष नहीं हैं । वह जवान होते बेटों से कहता है कि झुको । इतना झुको कि समतल भी खुद को तुमसे ऊंचा समझे , कि चींटी भी पेट के नीचे से निकल जाए । यह विनम्र होना है , विनयी होना है । आगे कवि कि चेतावनी भी है कि इतना मत झुकना कि कृपा तुम्हारे ऊपर बरसने के लिए हंसती रहे । वह कहता है कि झुकने का कटोरा लेकर मत खड़े होना घाटी में । यह स्वाभिमान है , जीने की एक अदा है ।
पिता कहता है कि इच्छाएं कंचों की गोलियां हैं , अगर फूट जाएं तो अफ़सोस न करना । कोई तुमसे आगे निकल जाए तो भी मुस्कुराना । यह खोने -पाने से ऊपर उठना है , हार-जीत से ऊपर उठना है । जवान होते बेटों से कवि कि अपेक्षा यह भी है कि किसी का भला न कर सको तो कोई बात नही , किसी का बुरा तुम कभी न करना । वह चाहता है कि बेटे परेशानी में पड़े हुए न दिखें बल्कि परेशानी से निकलते हुए दिखें । कोई उनसे प्रेम न भी करे तो वे स्वयं को उसके प्रेम के लायक बनाएं । यह जीवन को साध लेना है ।
चिकनी होती जा रही दुनिया में यह कवि अपने जवान होते बेटों में थोड़ा खुरदुरापन बचा देखना चाहता है । यहां खुरदुरापन को बचाना दरअसल आदमीपन को बचाना है , मानवीय मूल्यों को बचाना है और समझौता-परस्ती के फिसलन भरे रास्ते से निकलना भी है । कवि बेटों में न तो कोई बूढ़ा तज़ुर्बेकार आदमी देखना चाहता है और न ही उनमें शिशु-सुलभ मासूमियत ही देखना चाहता है । वह तो उनमें सिर्फ़ और सिर्फ़ जवानी का मुरीद है । जवानी जिसमें असंभव चीज़ें कर गुज़रने की हिम्मत है ,जिसके पास तोड़ने की ताक़त है तो जोड़ने की तरक़ीब भी है ।
 
 
जवान होते बेटो! / अष्‍टभुजा शुक्‍ल
जवान होते बेटो !
इतना झुकना इतना
कि समतल भी ख़ुद को तुमसे ऊँचा समझे
कि चींटी भी तुम्हारे पेट के नीचे से निकल जाए
लेकिन झुकने का कटोरा लेकर मत खड़े होना घाटी में
कि ऊपर से बरसने के लिए कृपा हँसती रहे

इस उमर में
इच्छाएँ कंचे की गोलियाँ होती हैं
कोई कंचा फूट जाए तो विलाप मत करना
और कोई आगे निकल जाए तो
तालियाँ बजाते हुए चहकना कि फूल झरने लगें

किसी को भीख देना पाना तो कोई बात नहीं
लेकिन किसी की तुमड़ी मत फोडऩा
किसी परेशानी में पड़े हुए की तरह मत दिखाई देना
किसी परेशानी से निकल कर आते हुए की तरह दिखना
कोई लड़की तुमसे प्रेम करने को तैयार हो
तो कोई लड़की तुमसे प्रेम कर सके
इसके लायक ख़ुद को तैयार करना

जवान होते बेटो !इस उमर में संभव हो तो
घंटे दो घंटे मोबाइल का स्विच ऑफ रखने का संयम बरतना
और इतनी चिकनी होती जा रही दुनिया में
कुछ ख़ुरदुरे बने रहने की कोशिश करना

जवान होते बेटो !
जवानी में बूढ़ा बन जाना शोभा देता है
शिशु बन जाना
यद्यपि बेटो
यह उपदेश देने का ही मौसम है
और तुम्हारा फर्ज है कोई भी उपदेश मानना

4 comments:

  1. बहुत अच्छीकविताऔर उतनी ही अच्छी टिप्पडी।

    ReplyDelete
  2. शुक्रिया कविता के लिए भी और टिप्पणी के लिए भी। दोनों भेदक!

    ReplyDelete
  3. शुक्रिया कविता के लिए भी और टिप्पणी के लिए भी। दोनों भेदक!

    ReplyDelete