"व्यवस्था" शीर्षक से अनुपम ओझा की पन्द्रह छोटी-बड़ी कविताएँ मनुष्य के अप्रासंगिक होते जाने वाले ग्लोबल समय की पड़ताल करती हैं और एक बार फ़िर वैश्वीकरण की हक़ीकत से पर्दा उठाने का गम्भीर प्रयास करती हैं । यह कविता की नैतिक जिम्मेदारी भी बनती है । व्यवस्था का चेहरा क्रूर है । यहां विरोध का स्थान संकुचित है । यथास्थितिवाद के शिकार लोग हैं । एक क्षण के लिए दुष्यन्त कुमार की ग़ज़ल " भूख है तो सब्र कर / रोटी नहीं तो क्या हुआ " की याद आती है । कविता में घात प्रतिघात सहता साधारण आदमी है । भ्रष्टाचार में लिप्त सत्ता का लिजलिजा चेहरा है । "हीक भर नरक के बाद / पीक भर स्वर्ग " कविता को ऊँचाई देता हुआ देशज मुहावरा है जो समकालीन कविता में लगभग दुर्लभ होता जा रहा है । कविता में बाजार के तिलिस्म में उलझे स्त्री विमर्श व मानवता के सरोकार भी हैं । मनुष्य के उपभोक्ता मे रूपान्तरित होने का सच भी है यहाँ । और महत्वपूर्ण यह भी है कि इस अस्वीकार्य सच को चुनौती देता हुआ कवि का स्वर भी सुनाई देता है । एक वाक्य में कहें तो यह कविता हमारी बेचैनी के थोड़ा और बढ़ा देती है - हमारे अवसाद को गहरा करती है ।
"ग्लोब पर चढ़ी हुई है एक चींटी,
ग्लोब में घुसा हुआ है एक तिलचट्टा
एक झींगुर लिख रहा है नए नक़्शे
पढ़ रही है एक मक्खी
गुबरैले चला रहे है चक्की"
चींटी , तिलचट्टा , झींगुर , मक्खी और गुबरैले प्राणिजगत के अत्यन्त तुच्छ जीव हैं लेकिन कविता में ये बड़े प्रभावशाली ढंग से आते हैं । तो क्या दुनिया की नियन्त्रक शक्तियाँ अब ये ही होंगी ? यह सब होते हुए भी व्यवस्था चल रही है । इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था में साधारण और कमजोर की सुनने वाला कौन है इसका जवाब कविता देती है ।
"सभी व्यस्त है !
तुम अपनी भूखी चीख दबाओ
दर्द पी जाओ
चलने दो व्यवस्था"
व्यवस्था की क्रूरता तब और भी निर्लज्जता के साथ प्रकट होती है जब वह जन जीवन में भय और संत्रास पैदा करते हुए अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहती है । कविता ईराक और अफ़गानिस्तान की बात भी करती है । कवि कहता है कि "बम चाहे जहाँ भी फूटे / मेरे सीने में गड्ढे बढ़ते ही जाते हैं" तो वह संकेत देता है कि इससे कोई भी अछूता नहीं रह सकता । असामंजस्यपूर्ण दुनिया में प्रभुत्वशाली वर्ग दर असल में चोरों की एक साझा ताकत है जो अपने तरीके से इस व्यवस्ता को बनाए रखना जानती है । इन्हें हर हाल में अपनी सहूलियतों का ख्याल है ।
"चोरों ने तय किया -
वे अपना संविधान बनायेंगे,
अपनी सहूलियत के लिए इस संसार में
वे अपना चोर-संसार बनायेंगे"
दबे कुचले हुए लोग चरम शोषण और संत्रास के बावजूद जीवन में अगर खुश रह लेते हैं तो यह भी उन्हें नागवार गुजरता है । कवि की नजर बाजार में टँगी होर्डिंग पर भी है जहाँ हमारी सोच तक को कन्डीसन करने की सूक्ष्म साजिशें रची जा रही हैं । कवि एक जगह कहता है कि "देह ही देह से भरी है विश्व-बाजार की फाइल !" । बाजार देह को एक उत्पाद की तरह व्यवहार करना जानता है ।
"वे एक बटन दबायेंगे,
एक बूंद कम पानी भर जायेगा
वर्तन में , बूंद बूंद से
भरता रहेगा उनका समुद्री उदर"
ये पंक्तियाँ बताती हैं कि शोषण की मशीनरी कितनी सूक्ष्मता से अपनी कारबार करती है । शिकार को पता ही नहीं चलता कि कब उसका हक उससे छिन गया । यह व्यवस्था पूरी दुनिया को एक ही सांचे में ढालने के पक्ष में है । ऐसा करने से उसे जनता को भीड में बदलने की सुविधा रहती है । कविता के संकेत स्पष्ट हैं ।
"एक जैसे चेहरे
एक जैसी भाषा
एक जैसा अंदाजे-बयां
एक जैसी मौत
एक जैसी कब्र
यानि ऊब ही ऊब
बहुत खूब!"
कविता में वर्चस्ववादी शक्तियों का एजेण्डा भी बेनकाब करता हुआ कवि समय का सच बयान करता है - "वे भविष्य में एक गोली दागेंगे / जिसकी आवाज वर्तमान में सुनाई देगी / और लहूलुहान होगा अतीत / फिर हमारे संग्रहालय ,पुस्तकालय और सभी तरह के आलय / जिसमें हम अपना इतिहास रखते हैं -- जला दिए जायेंगे !"
अनुपम ओझा की इन कविताओं में सिर्फ़ व्यवस्था का खूँखार चेहरा ही नहीं दिखता है बल्कि इससे लड़ने और बच निकलने की तरकीब भी दिखाई देती है जो इन कविताओं को बहुत महत्वपूर्ण बनाती है -
"अभिमन्यु चक्रव्यूह में फँस गया,
तुम निकल सकते हो
वह बाहर निकलना नहीं जानता था
तुम जानते हो"
याने कि एक मुकम्मल कविता जो कि समकालीनता के घटाटोप मे आजकल जरा दुर्लभ सी चीज होती जा रही है ।
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