Thursday, June 2, 2011

कविता - 4 :समकालीन कविता मे विचार बोध






 समकालीन कविता मे विचार बोध

समकालीन हिन्दी कविता के पिछले दस वर्षों की प्रवृत्तियों में वैचारिकता या विचार बोध की लगातार उपेक्षा हमारा ध्यान खींचती है । कविता के क्षेत्र में स्थानीयता से लेकर वैश्विक बोध की सहज सुलभ उपस्थिति ने इसके विचार बोध को क्रमश : परिधि पर ढकेल दिया है ।
क्या कविता की भाषा उसके पॉलिटिकल टोन को तय करती है ?
क्या इसके पीछे किसी प्रकार का मनोवैग्यानिक दबाव है ? क्या सोवियत संघ के विघटन और उदारीकरण-भूमण्डलीकरण के आग्रासी प्रभाव में कविता का परिप्रेक्ष्य भी बदला है ? मुक्तिबोध और नागार्जुन के बाद रेखांकित करने लायक गहरे राजनैतिक बोध वाली कविताएं विरल होती गई हैं । आठवें एवं नवें दशक की कविता पीढ़ी में सामाजिक परिवर्तन की आकांक्षा के स्वप्न की कविताएं ज़रूर दिखाई देती हैं परन्तु धीरे-धीरे यह आकांक्षा स्वप्न भंग की अपनी स्वाभाविक परिणति को भी पा लेती है । स्वप्न की जगह एक तल्ख सच्चाई से हमारा सामना होता है जो कविता में यत्र तत्र दिखता भी है । यह कहना गलत होगा कि हिन्दी कविता में वैचारिक शून्यता की व्याप्ति है । एक दिलचस्प तथ्य यह है कि सौ में से लगभग पन्द्रह बीस कविताएं जरूर ऐसी मिल जाएंगी जिनमें विचार की गहराई कौंध की तरह दर्ज हो । ऐसी कविताओं को देखने जानने और चिन्हित करने की स्वाभाविक इच्छा किसी भी पाठक को उद्वेलित कर सकती है । मुक्तिबोध के प्रश्न को दरकिनार नहीं किया जा सकता । हमें पूरा हक़ है कि अपने समय की कविताओं की पॉलिटिक्स की तहकीकात करें । ? हिन्दी कविता से पहले हिन्दी भाषा के टोन को समझना कम ज़रूरी नहीं और ऐसे वक़्त में हमारा वरिष्ठ कवि भरे चौराहे पर करबद्ध अनुरोध करता दिखाई देता है ।
"मेरा अनुरोध है
भरे चौराहे पर करबद्ध अनुरोध
कि राज नहीं-भाषा-
 भाषा - भाषा- सिर्फ़ भाषा रहने दोमेरी भाषा को ।
इसमें भरा है पास पड़ोस और दूर दराज की
इतनी आवाज़ों का बूंद बूंद अर्क
कि जब भी इसे बोलता हूं
तो कहीं गहरे
अरबी तुर्की बांग्ला तेलुगु
यहां तक कि एक पत्ती के
हिलने की आवाज़ भी
सब बोलता हूं जरा जरा
जब बोलता हूं हिन्दी "
( हिन्दी के बारे में एक हिन्दी कवि का बयान - केदारनाथ सिंह )
हम सभी जानते हैं कि हिन्दी का कवि एक अतिरिक्त दबाव झेलते हुए रचना कर्म करता है । इस भाषा में कई भाषाओं का बूंद बूंद अर्क है लेकिन यह मेरी आपकी या किसी और की मातृभाषा भी नहीं है क्योंकि हमारी मातृभाषाएं तो वे बोलियां हैं जिनका अर्क इसमें घुला मिला है । इस तरह जो कवि हिन्दी को भाषा रूप में चुनता है उसे दो मोर्चों पर एक साथ लड़ना होता है । एक मोर्चा बाहरी है तो दूसरा आभ्यन्तरीण । बहरहाल, कविता के अभ्यन्तर में विचार बोध की तहकीकात हमारी प्राथमिकता है । विचार बोध को समझने के कई औज़ार हैं, जिनमें पक्षधरता, आदर्श, जनतान्त्रिक मूल्य आदि प्रमुख हैं । हम किनके साथ हैं और क्यों यह हमारी पक्षधरता को तय करता है । हम क्या चाहते हैं यह हमारे आदर्श को तय करता है । जो हम चाहते हैं उसे किस रास्ते से हासिल करना चाहते हैं यह तरीका हमारे मूल्यों को तय करता है । इन सबसे ऊपर जनतान्त्रिकता या जनतन्त्र हमारे विचारों का बीज शब्द है ।
"कह तो गए हैं  
देश और जनता की इज्जत की कीमत पर
नहीं करेंगे सौदा कोई या हस्ताक्षर
पता नहीं पास उनके कसौटी कौन-सी
जनता की इज्जत के बारे में
जब कि सत्ता-लोभ में सनी
लिसलिसाती उनकी-सबकी इच्छा-आंखें ,
और उन्हें क्या पता नहीं उनके ही बन्दर सेवक
गमछे, वर्दी -तमगे वाले घोड़े कर देते हैं
चाहे जब दो कौड़ी की इज्जत
उस जनता की जो सचमुच जनता है "
( अमरीका गए हैं प्रधानमन्त्री - चन्द्रकान्त देवताले )
केदारनाथ सिंह की ही तरह चन्द्रकान्त देवताले भी गहरे जीवन बोध के कवि हैं । कविता में प्रधानमन्त्री अमरीका के दौरे पर जाते हुए देशवासियों को आश्वस्त करते हैं कि जनता की इज्जत की कीमत पर कोई सौदा नहीं किया जएगा । कवि इस झूठे आश्वासन की पोल खोल देता है । जनता की वैसे भी क्या इज्जत है प्रधानमन्त्री की निगाह में । जनता की तो रोज ही ऐसी की तैसी होती है प्रधानमन्त्री की आंखों के सामने । "सत्ता लोभ में सनी लिसलिसाती आंखों" में इस जनता के दु:खों का क्या मोल ? यह सिर्फ़ विरोधाभास नहीं । यह जनतन्त्र का मखौल है, उपहास है । सब कुछ जनता के नाम पर करो । सीधे-सीधे राजनैतिक कविता न होते हुए भी व्यंग्य में विचार बोध की धार यहां देखी जा सकती है । कविता में सवाल उठाना कवि की वैचारिक जिम्मेदारी तो है लेकिन संघर्ष उसे कविता के बाहर ही करना होगा ।
"कितना डरपोक हूं -
कविता में पूछता हूं वे प्रश्न
जो हल करने हैं मुझे
जीवन में
मुझे लौटा दो
आदमी के अदम्य साहस में
खोया भरोसा
लौटा दो
( इसी अंधेरे से - विजेन्द्र )
कवि विजेन्द्र को कवि रूप में अपनी ताक़त के साथ अपनी कमज़ोरियों का भी पता है । वे जानते हैं कि कविता में प्रश्न करने से काम नहीं चलेगा । प्रश्न का उत्तर तो जीवन में है, और जीवन, संघर्ष की मांग करता है- बीहड़ संघर्ष । संघर्ष की चेतना के लिये साहस की आवश्यकता है और साहस खो चुका है । इस खोए हुए भरोसे को कवि पुन: पाना चाहता है । अर्थात कविता के आगे-आगे जीवन का संघर्ष, आदमी के अदम्य साहस पर भरोसा - यह कवि का जीवन बोध है । आर-पार की लड़ाई कविता में सम्भव नहीं यह कविता का निहितार्थ है जो प्रबल वैचारिक ऊर्जा लेकर आता है । विजेन्द्र को इस बात का अहसास है कि जहां विचारों की रोशनी नहीं वहां कवि और मंच के जोकर में कोई फ़र्क भी नहीं ।

"देखो, कविगण "
हांफ़ रहे हैं
आमन्त्रित हैं राजभवन में
चूना खैनी फ़ांक रहे हैं
देख रजत मुद्रा ललचाएं
भजनानन्दी ओढ़ दुपट्टा
मधुर कण्ठ से गाना गाएं
(अच्छत धरती - विजेन्द्र )
बात कवि और कविता की राजनीति की है । वे कविगण कौन हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं रह जाती । राजदरबारों में रजत मुद्राओं की आकांक्षा में मधुर कण्ठ से गाने वाले कवि इतिहास में भी बहुत थे । आज भी ऐसे कवि क्या कम हैं । लेकिन इतिहास बड़ा निर्मम होता है । वह ईमानदार कवि और खाए-अघाए कवि का फ़र्क भी जानता है । वह आपकी हरकतों पर पैनी नज़र रखता है ।

"खाए-अघाए कवि अभी कविता के !
स्थापत्य में बिम्बों को
वाक्यों में सजा रहे हैं
अभी समकालीन इतिहासकार
अपने ड्राइंग रूम में
आदिम दस्तकारी सजा रहे हैं
अभी संसदीय मार्क्सवादी
अपनी ईमानदारी का
दाम लगा रहे हैं
(खाए-अघाए लोग - विष्णुचन्द्र शर्मा )
ऐसे खाए-अघाए लोग कविता की दुनिया के सही नागरिक नहीं हो सकते । इनकी पक्षधरता, इनकी राजनीति और इनके आदर्शों पर पर बार-बार सवाल उठाए जाएंगे । ये लोग घुसपैठियों की तरह कविता के समाज में आते हैं । कई बार सेंध लगाकर ये बहुत कुछ-यश लाभ भी पा जाते हैं परन्तु इनकी नागरिकता सन्दिग्ध बनी रहती है । दुनिया को बेहतर बनाने में इनकी कोई भूमिका नहीं होती । इनके बरक्स कुछ दूसरे लोग भी होते हैं जो कवि भगवत रावत के शब्दों में "अपनी पीठ पर पृथ्वी को धारण करते हैं"

"कहीं न कहीं कुछ न कुछ लोग हैं ज़रूर "
जो इस पृथ्वी को अपनी पीठ पर
कच्छपों की तरह धारण किए हुए हैं
बचाए हुए हैं उसे
अपने ही नरक में डूबने से
( वे इसी पृथ्वी पर हैं - भगवत रावत )
विष्णुचन्द्र शर्मा और भगवत रावत गहरे विचार बोध के कवि हैं । ये अपनी कविताओं में असली और नकली के भेद को लगातार बेनक़ाब करते रहते हैं । इनकी कविताएं विचारवान कविताएं हैं । जो कवि दुनिया बदलने के नकली गीत गाते हुए तमाशबीनों की तरह संघर्षों की आंच से दूर खड़े रहते हैं उनकी ईमानदारी पर शक किया ही जाना चाहिये । गहन विचार बोध गहरी ईमानदारी की मांग करता हैं । लेकिन विचार या विचारधारा कोई फ़ैशन की वस्तु भी नहीं है जिसे पहन-ओढ कर आप अपना लोहा मनवा लें ।

"मैं जब कविता लिखता हूं "
और कविता में स्त्री लिखता हूं
तो स्त्री को स्त्री लिखता हूं
विचार या विचारधारा नहीं लिखता
विचार या विचारधारा के बारे में
महासचिव प्रगतिशील लेखक संघ और
महासचिव जनवादी लेखक संघ से बात करें
मैं तो कविता लिखता हूं
( मैं तो कविता लिखता हूं - विनय दुबे )
कवि विनय दुबे कविता में भूख को "भूख", तितली को "तितली" और स्त्री को "स्त्री" लिखे जाने के आग्रही हैं तो इसका क्या अर्थ निकलता है ? कविता का निहितार्थ यह है कि विचार या विचारधारा कविता का सौन्दर्य-प्रसाधन नहीं बन सकते । विचार शब्दों में इस तरह आएं जैसे फ़ूलों में ख़ुशबू , पत्तियों में हरापन और हवाओं में नमी आती है । कहीं अतिरिक्त दिखावा नहीं । यह कविता के अनुशासन की मांग है ।
"मैं किस हक़ से गर्दन उठाए चलता हूं ?
इन सड़कों पर
सड़कें बनवाने का श्रेय लेती है जब कोई सरकार
मेरे हलक में अटक जाता है कौर
मेरे मुंह से निकलती है गाली कामचोर
तुम क्या जानते हो सड़क बनाने के बारे में
( सड़क पर चलते हुए - राजेश जोशी )
तो क्या रोटी का कौर उठाते हुए हमें इसलिए शर्मिन्दा होना पड़ेगा कि हम गेहूं की खेती के बारे में कुछ नहीं जानते? या पानी से भरा गिलास उठाने से पहले हमें अपना सर इसलिए झुका लेना होगा कि कुंआ खोदने के बारे में हमारी जानकारी कच्ची है ? आप देखें कि भगवत रावत के यहां जो विचार अपनी सहजता में गुंथे हुए आते हैं, वही विचार राजेश जोशी के यहां श्रृंगार की तरह आते हैं ; हालांकि दोनों की पक्षधरता एक ही है । कवि राजेश जोशी नगरों और महानगरों की सड़कों पर चलते हुए यदि खुद को शर्मिन्दा महसूस करते हैं तो क्या यह शर्मिन्दगी विचारों का अतिरिक्त दबाव नहीं है ? विनोद कुमार शुक्ल अपनी एक बहुचर्चित कविता "रायपुर बिलासपुर संभाग" में विचार को "लश्कर" की संग्या देते हैं । यह निर्विवादित सत्य है कि विचारों के लश्कर से ही कवि -लेखक अपनी लड़ाइयां लड़ते और जीतते आए हैं - कबीर , निराला से लेकर मुक्तिबोध , धूमिल आदि तक यह लड़ाइयां देखी जा सकती हैं । इस लड़ाई के अपने जोखिम भी हैं । कई बार ऐसे लोगों को बड़े कलात्मक ढंग से मार दिया जाता है ।

"कुछ को मारा जाता था घृणा से "
कुछ को प्रेम से
कुछ को अकाल से
कुछ को इफ़रात से
जो बहुत हठी होते उनके लिये
उपेक्षा एक कारगर उपाय था
(चौथा आविष्कार - नीलाभ )
कविता में शब्दों की लड़ाई लड़ते-लड़ते कई बार कवि मोह-भंग या स्वप्न-भंग का शिकार भी होता है । एक समय में यह मोह-भंग हिन्दी कविता में स्थायी भाव की तरह दिखाई देने लगता है । वह सुबह आखिर नहीं आई जिसका सपना हमारे कवियों ने देखा था । यह एक अन्तहीन लड़ाई है जिसे कविता में लड़ा जाना है । कविता कुछ शब्दों की डुगडुगी नहीं है जिसे बजाते हुए कवि कोई मुनादी कर दे ।

"शब्द हाशिए पर लड़ाई है "
जो लड़ी जाती है
अन्तहीन युद्ध की तरह
और याद रहे आपकी शहादत पर
न आंसू बहाए जाते हैं
न तालियां बजाई जाती हैं
(हिन्दी में - सुन्दर चन्द ठाकुर )
मुक्तिबोध को, जो बात उनके तमाम समकालीन कवियों से अलग करती है, वह है, उनकी कविताओं में विचारों की रोशनी । समय का अंधेरा इसी रोशनी के आगे पराजित होता है । अभिव्यक्ति की ईमानदारी, ग्यानात्मक संवेदन, ये महज कुछ मुहावरे नहीं हैं । ये एक महान कवि के जीवन संघर्ष से निकली चिंगारियां भी हैं । समकालीन कविता परिदृश्य में, पार्टनर( मुक्तिबोध की कव्य-पन्क्ति- "पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है"), हमें अपनी-अपनी पॉलिटिक्स तो तय करनी ही होगी । ऐसे में बार-बार कवि हेमन्त कुकरेती की की इन पन्क्तियों पर भरोसा करने का मन करता है ।

"अब मरने की इच्छा नहीं कतई
बिलकुल भरपूर जीने की इच्छा है
बना रहे गुस्सा
सिर्फ़ चीखने का नहीं
लड़ने का भी मन करता है
इन दिनों !"
 

2 comments:

  1. वाह... आपने हिन्‍दी कविता के विस्‍तृत फलक की उल्‍लेखनीय और बहुत जीवंत परिक्रमा करायी। विश्‍लेषण भी सहमतिजन्‍य। बधाई...

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