Tuesday, January 31, 2012

कविता - 11 : केशव तिवारी की एक कविता - "हम खड़े थे"

 
केशव तिवारी समकालीन कविता में लोक चेतना को आवाज़ देने वाले महत्वपूर्ण कवि हैं । समय का दंश उनकी कविता में रेखांकित करने लायक है । कवि का खुद से बोलना बतियाना भी कितना
अर्थपूर्ण हो सकता है यह "हम खड़े थे" कविता में देखना एक दिलचस्प अनुभव हो सकता है ।


बड़े ही एफ़र्टलेस तरीक़े से केशव तिवारी इस कविता में व्यक्तिगत क्रियाओं को सामूहिक क्रिया में बदल देते हैं । कविता में यह काम बहुत आसान नहीं हुआ करता है । "हर तरफ़ अपना ही तो चेहरा था" कहते हुए कवि अपने पाठक के सामने निष्कपट खड़ा हो जाता है और उस गहन जीवन दर्शन को आपके साथ साझा करता है जिसे जीवन के कुरुक्षेत्र में कोई कृष्ण ही दोहरा सकता है । एक बार के लिए महाभारत का गीता पर्व याद आ जाता है जहाँ अर्जुन को बताया जा रहा है कि मरने वाला , मारने वाला , पालने वाला और संहार करने वाला सब "मैं" ही हूँ । कविता में झूठ बोलने वाला , मुँह चुराने वाला , मुँह्देखी करने वाला और शेखी हाँकने वाला - ये सारे चेहरे एकाकार हो जाते हैं ।


"चेहरों पर थी दुखों की झाँई" है जिसे क्रूर समय ने रगड़-माँज कर और चमका दिया है । पाठक इस बात को समझ सकते हैं कि कविता में इस तरह दर्ज़ होने वाला दुख कितना मुकम्मल है । यह कलई की तरह ऊपर से चढ़ाया गया कोई पदार्थ नहीं है बल्कि इसके बरक्स एक स्थायी भाव है जिससे जितना निजात पाना चाहो उतना ही चिपकता जाता है । यह दुख बहुपर्तदार है । और एक बात कि "नावे तों बहुत थी / नदारद थी तो बस नदी" - अर्थात साध्य तो है पर साधन नदारद । कर्म के निष्पादन के लिए दोनों का एक साथ होना आवश्यक है ।


ऐसे कविता समय में कवि कहता है कि "सारी कला एक अदद / शोकगीत लिखनें में बिला रही थी" । शोकगीत भी जीवन का एक पक्ष है । यह अनायास नहीं कि हमारे समय कि अधिकांश कविताएँ अपनी समग्रता में एक लम्बे शोकगीत का समुच्चय मालूम होती हैं । कवि सतर्क करता है कि ऐसे में पीठ पर हाथ रखने वाले से भी सावधान रहना लाजमी हो जाता है क्योंकि वह हाथ आपकी रीढ़ भी टटोलता है । कवि के हौसले की तारीफ़ करनी ही होगी कि वह ऐसे बेमुरव्वत समय में भी "ढह चुकी दीवारों वाले घर की चौखट पर" एक मजबूत दरवाजे की तरह खड़ा है । यह उस उम्मीद का दरवाजा है जो तमाम प्रतिकूलताओं के बीच भी ढहने से बचा रहता है ।

हम खड़े थे

किससे बोलता झूठ
और किससे चुराता मुँह
किसकी करता मुँहदेखी
किसके आगे हाँकता शेखी
हर तरफ़ अपना ही तो चेहरा था
नावे तों बहुत थी
नदारद थी तो बस नदी
चेहरों पर थी दुखों की झाँई
जिसे समय ने रगड-रगड़ कर
और चमका दिया था

सारी कला एक अदद
शोकगीत लिखनें में बिला रही थी
जिसने भी रखा पीठ पर हाथ
बस टटोलने लगा रीढ़

हम खड़े थे समय के सामने
जैसे लगभग ढह चुकी
दीवारों वाले घर की चौखट पर
खड़ा हो कोई एक
मज़बूत दरवाज़ा

(केशव तिवारी की एक कविता)

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