Saturday, January 28, 2012

कविता - 10 : कविता की रचना प्रक्रिया








शब्दों से कविता बनती है । लेकिन शब्दकोष रट कर कविता करना वैसे ही असम्भव है जैसे ककहरा सीख कर प्रबन्ध लिखना । कविता कब कैसे और किस मुहूर्त में सम्भव होती है यह रहस्य न सही पर इसमें कुछ जादू ज़रूर है । कविता में भाव , अलंकार , रस , उपमाएँ , रूपक , बिम्ब , प्रतीक आदि अनिवार्य रूप से आते है लेकिन कविता इन सब की खिचड़ी भी नहीं है । वक्रोक्ति तो कविता का एक उपादान है ही फ़िर भी आड़ी तिरछी बातें कविता नहीं कहलातीं । कोरा भावोच्छ्वास भी कविता नहीं । तो आखिर कैसे सम्भव होती है कविता । क्या है कविता का जादू ?

जैव-प्रोद्यौगिकी के कुछ वैग्यानिक एक अनुसंधान कर रहे थे । यह टिश्यू-कल्चर से सम्बन्धित एक प्रयोग था । संक्षेप में यह जान लेना आवश्यक है कि इस वैग्यानिक विधि द्वारा किसी जीवित प्राणी अथवा पादप के शरीर से जीवित अवस्था में कुछ ऊत्तक या टिश्यू लिए जाते हैं जिन्हें प्रयोगशाला में बड़े पैमाने पर गुणात्मक रूप से कृत्रिम ढंग से तैयार किया जाता है । क्लोनिंग इसी विधि का विकसित रूप है । फ़र्ज कीजिए कि एक खास किस्म की दवा किसी विशेष पौधे की पत्ती से बनती है । तो उस पौधे की एक पत्ती से कल्चर तकनीक द्वारा जितनी चाहे दवा बनाई जा सकती है । सम्बन्धित नमूने को कल्चर करने के लिए खास किस्म के मीडियम या माध्यम की आवश्यकता होती है । इस माध्यम से विकास के लिए जरूरी ऊर्जा प्राप्त होती है । तो लब्बोलुबाब यह कि वैग्यानिकों ने अपने प्रयोग में नारियल पानी को माध्याम के रूप में इस्तेमाल करके देखा कि उन्हें अपने मनमाफ़िक परिणाम मिल रहे हैं । विधि सफ़ल हो रही थी । लेकिन समस्या यह थी कि नारियल की आमद सीमित थी । लिहाजा उन्होंने नारियल के पानी का रासायनिक विश्लेषण किया और पता लगाया कि उसमें कौन-कौन से उपादान होते हैं । उन सभी उपादानों को एकत्रित किया गया और उसी अनुपात में मिलाया गया । लेकिन वे अश्चर्यचकित थे कि इस बार उन्हें अपने प्रयोग में वह सफ़लता नहीं मिली । कई बार इसे दोहराये जाने के बावजूद वे असफ़ल रहे और उन्हें प्राकृतिक नारियल पानी से ही काम चलाना पड़ा । उन्होंने नतीजा यह निकाला कि नारियल के पानी में कुछ बात है - देयर इज़ समथिंग मैजिकल इन इट । तो कविता भी उसी नारियल के पानी जैसी चीज़ होनी चाहिए ।


कहने का अर्थ यह कतई नहीं है कि कवि कोई जादूगर होता है । ऐसा तो बिलकुल भी नहीं है । लेकिन कविता की रचना प्रक्रिया में कहीं न कहीं वह बात अवश्य है कि "देयर इज़ समथिंग मैजिकल इन इट" । आखिर क्यों बड़े से बड़े कवि के लिए भी हर बार बड़ी कविता लिखना कठिन होता है । क्यों किसी बिलकुल नए कवि की एक कविता वह बात कह जाती है जो पहले किसे ने उस ढंग से नहीं कही । क्यों आखिर , "कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़--बयाँ और" । बहुत सम्भव है कि कवि होना व्यक्ति का खुद का चुनाव न हो बल्कि कविता ने स्वयं ही उसे अपने लिए चुन लिया हो ।


कविता का विषय क्या हो यह किसी भी कवि की प्राथमिक चिन्ता होती है । विषयों का आधिक्य हो तो उनमें से चुन लेने की चुनौती और जिम्मेदारी भी होती है । यह काव्य-विषय कविता के शरीर का हाड़-मांस होता है जिसमें कवि अपनी समझ और सीमा के भीतर प्राण-प्रतिष्ठा करता है और कविता में रक्त-संचार करता है । बाकी की चीज़ें अर्थात शैली , मुहावरे , भाषा-वैचित्र्य आदि कविता के ज़रूरी अलंकरण तो हैं ही ।


एक काव्य विषय और उस पर कविता - यह रचना प्रक्रिया को समझने के लिए एक जरूरी तरीका हो सकता है । उदाहरण के लिए अपनी ही एक हाल में लिखी कविता पर बात क्यों न की जाए ।



पौ फटते ही काम पे जाती पारबती की माई
सुरसतिया था नाम बताती पारबती की माई


इनके घर झाड़ू-पोछा तो बरतन-बासन उनके
हाड़ तोड़ कर करे कमाई पारबती की माई


पेट काट कर पाले बुतरू सिल कर रक्खे होंठ
दुनिया माया जाल बताती पारबती की माई


अति उदार मन हृदय विशाला कठिन करेजे वाली
महाबीर की एक लुगाई पारबती की माई


हाथ और मुँह के बीच तनी रस्सी पर चलती जाये
अजब नटी है गजब हठी है पारबती की माई


(उसका नाम सरस्वती था । यह बात उसे भी ठीक से पता नहीं थी । वह अपना नाम सुरसतिया या सुरसती ही बताती । नालन्दा के आस पास की रहने वाली । मैथिली बोलती थी । वह ब्याह कर कलकत्ते आई और पति के साथ मेहनत मजदूरी करते हुए जिन्दगी गुजार दी । पति का नाम महावीर । कलकत्ता शहर ने न जाने कितने ऐसों को अपने पाश में जकड़ रखा है । मजदूरी या मजबूरी कौन जाने । बहरहाल इन्हें हम पारबती की माई के नाम से ही जानते थे । हम क्या, जानने वाले सभी इन्हें इसी नाम से पुकारते थे । पारबती यानि पार्वती, इनकी बेटी का नाम ।
ये हमारे घर सहित और भी कई घरों में घरेलू नौकरानी का काम करती थीं । मेरी माँ की स्नेहभाजन थीं ये । इन पर भरोसा किया जा सकता था । इतना कि सोने का कलश भी उलटा पड़ा हो तो ये उधर देखेंगी भी नहीं । परिवार इनका बड़ा था , जैसा कि होता है । गरीबी भी अजीब है । परिवार की चिन्ता में ये बराबर घुलती रहतीं । कमाई से मुश्किल से घर का राशन जुटा पाती होंगी । इनके इस त्याग भाव को इनके घर वाले कभी समझने को तैयार न थे । यहाँ तक कि जिनके लिए ये दिन रात हाड़ तोड़ मेहनत करतीं उन्हें लगता कि घर-घर काम करती है खाना तो इसे मिल ही जाया करता होगा । लिहाजा अपने घर में इन्हें भोजन भी मुश्किल से ही नसीब होता था । संसार माया का जाल है , यह इनका जीवन दर्शन था ।
मेरी माँ से इनका रिश्ता कुछ इस तरह का था कि वे एक दूसरे से अपने दुख -सुख बाँट सकती थीं । हमारे घर खाना इस हिसाब से बनता कि कुछ अतिरिक्त बचा रहे । माँ इस बात का विशेष खयाल रखतीं । माँ की रसोई में कभी कुछ खास व्यंजन पकता तो क्या मजाल कि पारबती की माई बिना खाए चली जाए । अक्सर हम बच्चों से भी पहले उन्हें माँ खिला देतीं । हम इसके लिए नाराज़ भी होते । होश सँभालने की उम्र से लेकर मेरी पढ़ाई , नौकरी और शादी तक ये हमारे घर से जुड़ी रहीं ।)

यह एक ऐसा चरित्र था जो बारहाँ कविता में आने के लिए मासूम बच्चे की तरह जब-तब हाथ ऊपर करता रहता । इस स्त्री का समूचा जीवन संघर्ष का पर्याय है । जीवन की लड़ाइयाँ और कैसी होती होंगी । देखा जाए तो एक कर्मयोगी का जीवन । आज देर से ही सही यह कविता पारबती की माई के लिए।


लेकिन यह मानना ही चाहिए कि कविता में हम एक विषय अथवा चरित्र को कितनी भी सावधानी के साथ समाने की कोशिश क्यों न कर लें , वह थोड़ा सा हमारे हाथ से फ़िसल ही जाता है । कोई बात अब भी अनकही रह जाती है । यहीं से दूसरी कविता के लिए जमीन तैयार होती है । जो बात एक कवि से छूट जाती है कई बार उसे कोई दूसरा कवि पूरा करता है । और उस तरह कविता की अनन्त यात्रा चलती है ।


मेरे एक मित्र हैं । कविता नहीं लिखते , लेकिन कविता के पारखी हैं । एक बार मेरी लगभग पचास कविताएँ पढ़ने के बाद उन्होंने एक बड़े काम की बात बताई । कहा - कविताएँ तो ठीक हैं , पर मुझे दो-तीन कविताएँ ज्यादा अच्छी लगीं - अच्छा , आपलोग जो कविताएँ लिखते है वैसी कविताएँ मैं एक दिन में एक बैठक में पचास की संख्या में लिख दूँ । मैंने कहा आपको जरूर लिखना चाहिए । बात हल्के में उड़ा देने जैसी नहीं है । हमारे समय की आलोचना की शिकायत भी यही है । वे कहते हैं कि नाम हटा दो तो पहचानना मुश्किल हो जाएगा कि कविता आखिर है किसकी । सोचता हूँ कि हमारी कविताओं के पास इस शिकायत का क्या जवाब है । हम कुछ नाम जरूर गिना सकते हैं उन्हें गलत साबित करने के लिए । लेकिन यह सोचने की बात है कि कविता हमारे समय में जरूरत से ज्यादा ग्लोबल होती गई है ।


ग्लोबल होना बुरा नहीं है । पर ऐसा करते हुए यदि हम अपनी स्थानीयता खो दें तो बात गम्भीर हो जाती है । हुआ यह कि कुछ तथाकथित सफ़ल कवियों का अनुकरण करते हुए कविता एक अंधी गली में पहुँच गई । अब कोई बताए कि कोलकाता के कवि की कविताओं में अगर चौरंगी , पार्क स्ट्रीट , पार्क सर्कस , हाथी बगान या कॉलेज स्ट्रीट नहीं आते हैं तो उसे कैसे पहचाना जाये । बनारस के कवि में यदि अस्सी घाट , वरुणा पुल , दसाश्वमेध , लंका , लहुराबीर न आयें तो उसे कौन पचानेगा । गोरखपुर के कवि की चेतना में अगर गोलघर , उर्दू बाजार , बक्शीपुर , मोहद्दीपुर की गंध न मिले तो पाठक का क्या दोष । कहने का अर्थ बस इतना ही कि हमारे लेखन में हमारा परिवेश भी झलकना चाहिए , उसकी गंध पाठक को मिलनी चाहिए । भाषा और मुहावरे और उसके अलग अन्दाज की बात तो बहुत बाद की बात है ।


देखा यह जाता है कि कोलकाता से लौट कर पटना का कवि एक कविता लिखता है । या दिल्ली का कवि बनारस से लौट कर एक कविता लिखता है । इन कवियों की कोलकाता या बनारस पर वह पकड़ मुश्किल है । संकट संवेदना का नहीं है बल्कि संवेदना की प्रामाणिकता का है । इस बात का यह मतलब बिलकुल न निकाला जाए कि कोलकाता या बनारस पर कुछ लिखने का अधिकार महज स्थानीय कवि का ही होना चाहिए । सवाल अनुभूति की प्रामाणिकता का है । अन्तत: जो बात लाख टके की साबित होती है वह यह कि पर्यटक डायरी लिखता है और कवि कविता । ऐसा न होता तो अखबार का हर रिपोर्टर कवि होता ।


एक बड़े कवि हमारे शहर में आए । बहुत बड़े कवि । साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता कवि । साथ में एक पत्रकार मित्र और एक सम्पादक मित्र भी थे । बात चलते-चलते समकालीन कविता पर चल निकली । पत्रकार मित्र ने कहा - सर , आप के बाद के सारे कवि आपकी नकल कर के लिख रहे हैं । सम्पादक मित्र ने इस बात का समर्थन किया । कविश्रेष्ठ ने अंग्रेजी में कहा - हाउ कैन आइ हेल्प इट ! मैंने कहा आखिर ऐसी कविताएँ आप छापते ही क्यों है । उन्होंने कहा अखबारों पत्रिकओं में फ़िलर के लिए कुछ चीजे डालनी पड़ती हैं । मेरा विरोध उस दिन हार गया । लेकिन यह प्रश्न मेरे साथ तब से ही चल रहा है । इसका जवाब मुझे चाहिए ।


कविता अक्सर एक कौंध की तरह आती है । एक फ़्लैश । इस कौंध का मतलब कवि के लिए वही हो सकता है जो कुम्हार के लिए मिट्टी , बढ़ई के लिए लकड़ी या लोहार के लिए लोहे का हुआ करता होगा । आखिरकार कविता एक शिल्प भी तो है । एक केन्द्रीय भाव से पूरी कविता को गढ़ना शिल्पगत कौशल की माँग भी करता है । हुनर जितना सधा हुआ होगा कविता भी उतनी ही सधी हुई रची जा सकेगी । कविता की गंगा को धरती पर उतारने के लिए भगीरथ प्रयास भले ही न करना पड़े परन्तु उसे धारण करने के लिए शिव की चेतना का प्रयोजन अवश्य है ।


कवि के मन का वातायन चारों ओर से खुला होता है और उसका आन्तरिक दबाव बहुत ही हल्का । वह सूक्ष्म संकेतों को भी आसानी से अपने भीतर ग्रहण करता है । इसके साथ ही वह अप्रयोजनीय चीज़ों का त्याग भी करता चलता है । कुम्हार के चाक पर गीली मिट्टी को स्पर्श करते कुम्हार के हाथों को जिसने देखा है वह जानता है कि कितनी सूक्ष्मता से वह आकृतियाँ गढ़ता है । लेकिन ध्यान देने की बात यह भी है कि अतिरिक्त मिट्टी को वह बड़ी निर्दयता के साथ अलग भी कर देता है । ऐसा वह रचना के हित में ही करता है ।


वह कैसा आवेग रहा होगा जिसने क्रौंच-वध की पीड़ा से कातर होकर पहली कविता , पहले श्लोक को जन्म दिया होगा । कविता की रचना प्रक्रिया हर कवि पर समान रूप से लागू नहीं की जा सकती । हाँ कुछ आधारभूत बातें अवश्य कही जा सकती हैं । सत्य तक पहुँचने के मार्ग साधकों के लिए अलग अलग भी हो ही सकते हैं । लेकिन एक बात तय है - यह कर्म एक साधना है ।


कभी भी कवि-कर्म उत्पादन प्रक्रिया से जुड़ा मामला नहीं रहा । न ही हो सकता है । हालांकि ऐसी कोशिशें भी समय समय पर की जाती रही हैं । कविता ने कभी भी अपने लिए बाज़ार को नहीं चुना । वह माँग और आपूर्ति से परिचालित होने वाली विधा नहीं है । जब भी ऐसे समझौते किए गए कविता ने अपना वैभव खोया । कविता का एक बड़ा सवाल उसके कथ्य और शिल्प का है । एक कविता का देह है तो दूसरा उसकी आत्मा । जैसा कि ऊपर संकेत दिया गया है कविता का कथ्य उस कौंध से निकलकर आता है । वह कविता का कच्चामाल होता है जिसे शिल्प के सहारे गढ़ना होता है । दोनों का एक दूसरे से कोई विरोध नहीं होना चाहिए । दोनों से ही कविता का काम चलता है ।


एक और बात - कविता के श्रृंगार की । कविता के भावक और आस्वादक , उसके पाठक , कविता के श्रृंगार पर मुग्ध होते हैं । यह कविता का अलंकार पक्ष है । कवि के अपने विवेक पर यह निर्भर करता है कि वह अपनी कविता का श्रृंगार किस तरह करता है । इन तमाम बातों के अलावा संप्रेषण कविता की सबसे बड़ी चुनौती है । संप्रेषित हो जाना ही अन्तत: कविता की सार्थकता है ।
 

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